काफव को नहीं मिल रहे हैं इस बार सैलानी, किसान परेशान

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December 27, 2024

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काफव को नहीं मिल रहे हैं इस बार सैलानी, किसान परेशान

नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/नैनीताल/नई दिल्ली/मनोजीत सिंह/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- काफव या काफल एक ऐसा फल है जिसे खाने के लिए पर्यटक सैकड़ों, हजारों किलोमीटर दूर सफर तय कर हर गर्मी के मौसम में पहाड़ों पर आता है। स्थानीय बोल-चाल में इसे काफव ही कहा जाता है, लोगों ने इसका हिंदी रूपांतरण कर इसका नाम काफल रख दिया।
                                     उत्तराखण्ड में हर गर्मी के मौसम में पर्यटकों से फुल रहता था। लेकिन इस बार लॉक डाउन की वजह से काफव खाने के लिए न बाहरी पर्यटक हैं न राज्य का अपना पर्यटक है। काफव बेचने वाले किसान, दुकानदार इस बार मायूस हैं। देश विदेश से सैकड़ों पर्यटक गर्मी में उत्तराखण्ड आने पर कफव का स्वाद जरूर लेते थे। यह फल उत्तराखण्ड का राजकीय फल भी है. वैज्ञानिक नाम इसका मायरीका एस्कुलेंटा है। बाजार में दिख तो रहे हैं लेकिन पर्यटक नहीं होने से उतना पैसा नहीं मिल रहा है जितना मिलना चाहिए। इस सीजन में बिक्री पिछले वर्षों के मुकाबले कहीं नहीं है। जंगली फल के किसानों का कहना है कि कोरोनावायरस के प्रकोप ने उनके व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया है। हर साल, ग्रामीण,दुकानदार काफव इकट्ठा करते हैं और इसे 100 रुपये से 150 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच की कीमतों पर बेचते हैं। फल पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है और इस प्रकार, किसान हर साल इसकी बिक्री से अच्छा मुनाफा कमाने में सक्षम हैं।कहते हैं जिसने गर्मी में काफव नहीं चखा उसकी पहाड़ की यात्रा कुछ खास नहीं रही ।
                                नैनीताल के कैंची में सुधा अमर रिट्रीट के होटेलियर भगवान सिंह माजिला ने नेशनल फ्रंटियर से कहा “इस बार पर्यटक है नहीं, राज्य के पर्यटक भी न के बराबर है, जो आ भी रहा है वह रास्ते में कहीं रुक नहीं रहा है कोरोना संक्रमण के डर से, ऐसे में काफव इस बार आस पास क्षेत्रीय लोग खा रहे हैं। काफव इस बार बहुत लगे हैं लेकिन सैलानी नहीं होने से काफव काफी बचे हैं पेड़ों में। मैं भी गाँव जाते समय रास्ते में खुद पेड़ से तोड़कर काफी काफव खाये। काफव बेचने वाले किसानों को इसका उचित दाम नहीं मिल पा रहा है। मैं हर वर्ष काफव पकने का इन्तजार करता हूँ और हम लोग इसका लुत्फ उठाते हैं . इस बार काफव काफी मात्रा में लग गए हैं, लेकिन खाने वाले लोग बहुत कम हैं । हमारे यहाँ जो भी पर्यटक आता है उनको सभी को खिलाते हैं, साथ ही पर्यटक खुद मांग करता है इस काफव की, लेकिन इस बार लॉक डाउन की वजह से काफी नुक्सान उठाना पड़ रहा है  काफव बेचने वालों को साथ में होटेलियर्स को भी । ”

अल्मोड़ा के रहने वाले अमित जोशी ने नेशनल फ्रंटीयर
विशेष रूप से, काफल का उल्लेख उत्तराखंड के लोककथाओं में भी मिलता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि हिमालयी फल के वृक्षों पर एक पक्षी की प्रजाति (स्थानीय रूप से कफू) कहा जाता है, “काफल पाको माई न चख्यो” (कफ फल पके हैं लेकिन मैंने उन्हें नहीं चखा है)। बोलता है। आजकल आपको पहाड़ों में यह पक्षी के बोल सुनाये देंगे आपको हर जगह। एक तरह का सन्देश देता है पक्षी की काफव पक गए हैं लेकिन मैंने नहीं चखा है। माना जाता है कि एक तरह से निमंत्रण हैं वह प्रकर्ति द्वारा इंसान को की आ जाओ काफव चख लो ।

काफव की क्या है उपयोगिता और कहाँ पाया जाता है ?
इसकी छाल का प्रयोग चर्मशोधन (टैंनिंग) के लिए किया जाता है। काफल या काफव का फल गर्मी में शरीर को ठंडक प्रदान करता है। साथ ही इसके फल को खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाती है और हृदय रोग, मधुमय रोग उच्च एव निम्नलिखित रक्त चाप नियन्त्रित होता है।

क्या कहते हैं एक्सपर्ट वैज्ञानिक काफल के बारे में ?
डॉक्टर अनिल पंवार सरदार भगवन सिंह यूनिवर्सिटी देहरादून में प्रोफेशर हैं और पंत नगर यूनिवर्सिटी के स्कॉलर रहे हैं. नेशनल फ्रंटियर से बात करते हुए बताया जो इस मामले में रिसर्च भी कर रहे हैं, “काफव फल 2000- से 2200 की ऊंचाई में होता है। उत्तराखण्ड, हिमाचल और नेपाल क्षेत्र में अधिक पाया जाता है । लेकिन पेड़ों संख्या ज्यादा होने से उत्तराखण्ड से इसको नाम मिला, प्रसिद्धि मिली। डायबर्सिटी ज्यादा है उत्तराखण्ड में। लेकिन इस फल को आगे बढ़ाने के लिए एक योजना चाहिए। रिसर्च, प्रोडक्शन, किसानों को जानकारी देने इत्यादि की आवश्यकता है ।इसकी स्टोरेज की जरुरत है क्योँकि 24 घंटे से ज्यादा यह फल रह नहीं पाता। स्टोरेज कर के इसको 2-3 महीने तक रख सकते हैं लेकिन तब उतना टेस्ट नहीं रहेगा इसमें । आर्टिफिसियल कंडीशन में चला जायेगा फल । ज्ैै कई बार इसका कम ज्यादा होता रहता है। जहाँ तक इसके जन्म की बात है अधिकतर ट्रेडिशनल ट्री ही इसका रिप्रोडक्शन करता है वहीँ फल गिरा वही पेड़ उग गया. ऐसी जगह होता है जहाँ पर इंसान कई बार जा भी नहीं पाता, या फिर सरकारी नर्सरी, उदयान बिभाग में इसका प्लांट पैदा कर के जंगलों में उस टेम्प्रेचर में लगाया जाए । इसके लिए प्लानिंग, पैसा, रिसर्च देखरेख चाहिए । जंगल में ऐसी जगह बार बार जाना पेड़ जिन्दा रह पायेगा या नहीं कई सारे प्रश्न हैं जिनसे जूझना पड़ता है। साथ ही कई बीमारियों में भी यह फल काफी फायदेमंद होता है।

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