“देवी में निहित श्रृद्धा”

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November 21, 2024

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“देवी में निहित श्रृद्धा”

शक्ति आराधना पर्व शारदीय नवरात्रि समापन की ओर है। हमने नौ दिवस माता के प्रत्येक रूप की महिमा एवं स्वरूप का गुणगान किया है। नौ दिन माँ ही हमारे लिए सर्वस्व रही है। प्रत्येक कन्या आदिशक्ति दुर्गाजी का प्रतिरूप है, जिसमें सृजन की शक्ति है जो सदैव परिवार के लालन-पालन, भरण-पोषण के लिए समर्पित रही है। जगतमाता जगदंबा ने प्रत्येक प्राणी को अपनी ममता की छाव प्रदान की है। सभी को संतति मानकर स्नेह और प्रेम से सींचा है। कन्या पूजन के समय हम कन्याओं को देवी का प्रत्यक्ष स्वरूप मानकर पूजते है, पर उस शक्ति स्वरूपिणी देवी की उत्कंठा, प्रताड़ना, भय, संत्रास, घुटन एवं पीड़ा हमें वर्ष भर दर्शनीय नहीं होती। भ्रूण हत्या के समय हम उस मातृ शक्ति को स्मरण रखना भूल जाते है। बलात्कार के समय हम उस देवी के आशीर्वाद, उसकी प्रार्थना, ध्यान, अर्चना एवं उसकी सृजन शक्ति सभी को नगण्य मानते है।

नारी की विशालता का वर्णन तो असंभव है। प्रत्येक स्वरूप में नारी ने उत्कृष्टता, समर्पण, श्रृद्धा, निष्ठा, त्याग एवं प्रेम को प्रदर्शित किया है। जब सीता बनी तो अपनी पवित्रता के लिए अग्निपरीक्षा दे दी। सावित्री बनी तो अपने पति के प्राणों के लिए निडर होकर यमराज के समक्ष प्रस्तुत हुई। राधा बनी तो प्रेम की उत्कृष्टता को दर्शाया। सती बनी तो पति सम्मान में देह त्याग दी। मीरा बनी तो सहर्ष विष का प्याला ग्रहण किया। लक्ष्मी बनी तो नारायण के चरण दबाकर सेवा का महत्व समझाया। उर्मिला बनी तब वियोग की पीड़ा को सहन किया। शबरी बनकर प्रभु के प्रति अगाध श्रृद्धा एवं भक्ति भाव को दर्शाया। भगवान शिव माता गंगा को शीश पर धारण करते है। वे नारी के प्रति सम्मान को बताते है। सीता स्वयंवर में नारी की स्वेच्छा को कितना महत्वपूर्ण बताया गया है।

आज पुनः महिषासुर रूपी राक्षस का आतंक, क्रूरता एवं भय दृष्टिगोचर हो रहा है। माता की पूजा शक्ति आराधना पर्व में तो हमने पूर्ण पवित्रता रखी है, परंतु हमारे विचार कलुषित हो गए है। वात्सल्य रूपी माँ भगवती को आज दैत्य शुंभ-निशुंभ एवं रक्तबीज का वध करना होगा। आज का मानव पुनः दानव में परिवर्तित होता नजर आ रहा है, जो स्त्री की गरिमा, निष्ठा एवं सम्मान का हनन कर रहा है, जिसके कारण दुर्गा रूपी कन्या का हृदय दहल गया है, जिससे शक्ति की आराधना करने वाले समाज में नारी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करती है।

माँ के स्वरूप में आदि-अनंत, सृजन-विनाश, क्रूर-करुणा एवं काल सब कुछ व्याप्त है, तो माँ के इस स्वरूप के दर्शन हमें सदैव प्रत्येक नारी में करने चाहिए और कन्या के प्रति अपने विचारों को दिव्यता प्रदान करनी चाहिए। माता को ज्योति अत्यंत प्रिय है, हमें भी माँ से ज्ञान की ज्योति का आह्वान करना है जिससे नारी सुरक्षित हो। माँ को चुनरी प्रिय है जिसका अर्थ है हमें सबकी लाज बचानी है, उसकी रक्षा करनी है। हमारे सनातन धर्म की श्रृद्धा देखिए कि हम नदियों को भी माँ मानकर उनको चुनरी ओढ़ाकर उन्हें सुशोभित करते है। पृथ्वी माँ पर अपने चरण रखने से पहले उनसे क्षमा याचना करते है और धरा माँ की उदारता देखिए वह किसी भी प्राणी में भेदभाव नहीं करती। सबके प्रति समभाव प्रत्यक्ष करती है।

माँ चाहती है की हम उन्नत विचारों का अंकुरण करें। उदार, उन्नत सोच का आविर्भाव करें। नौ महीने गर्भ में बिना भेदभाव के भ्रूण को उदार भाव से पल्लवित और पुष्पित करें। माँ के सृजन में नारी कोमल है, पर वह शक्तिहीन और लाचार नहीं है। नारी भावों की अनुपम प्रवाह है पर भोग की वस्तु नहीं। नारी में सदैव मौन सौम्य स्वभाव विद्यमान है, पर वह मूक का उदाहरण नहीं। वह समर्पण का पर्याय है जिसमे दर्प नहीं है। वह निश्चल वात्सल्य से परिपूरित है पर वाचाल नहीं है। वह कर्तव्यों का निर्वहन करती है, मर्यादा में रहती है पर परतंत्र नहीं है। वह सृजन की नियामक है पर कोई निर्जीव संयंत्र नहीं है। वह प्रेम और अनुराग से ओतप्रोत है पर वह अबोधिनी नहीं है। वह सदाचार का प्रतिबिंब है पर कमजोर नहीं। वह सहज और सरल है पर शून्य नहीं। नारी तो स्वतंत्र, स्वच्छंद और उन्मुक्त उड़ान है पर वर्तमान समय में उसका पीछा करते शैतान और हैवान है। देवी में निहित श्रृद्धा को विचारों की परिपक्वता और उन्नत दृष्टिकोण से श्रृंगारित कीजिए और निर्मल प्रेम भावना से उसे सजाइए। कन्या और देवी के प्रति अपनी दृष्टि को प्रत्येक नवरात्रि जैसी बनाइये। जय माता दी।

डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)

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