26 नवंबर न्याय विधान स्थापना दिवस पर- स्वतंत्र न्यायपालिका राष्ट्र की रीढ़लेखक- सुरेश सिंह बैस शाश्वत.चदह

स्वामी,मुद्रक एवं प्रमुख संपादक

शिव कुमार यादव

वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजसेवी

संपादक

भावना शर्मा

पत्रकार एवं समाजसेवी

प्रबन्धक

Birendra Kumar

बिरेन्द्र कुमार

सामाजिक कार्यकर्ता एवं आईटी प्रबंधक

Categories

December 2024
M T W T F S S
 1
2345678
9101112131415
16171819202122
23242526272829
3031  
December 23, 2024

हर ख़बर पर हमारी पकड़

26 नवंबर न्याय विधान स्थापना दिवस पर- स्वतंत्र न्यायपालिका राष्ट्र की रीढ़लेखक- सुरेश सिंह बैस शाश्वत.चदह

स्तंभ/- “कोई भी समाज बिना विधान मंडल के रह सकता है, परंतु ऐसे किसी सभ्य राज्य की कल्पना नही की जा सकती, जिसमें न्याय पालिका न्यायाधिकरण की कोई व्यवस्था नहीं“- किसी राज्य में न्याय व्यवस्था की अनिवार्यता प्रोफेसर गार्नर के इस विचार से सहज ही लग जाता है। ऐसे विचार के परिप्रेक्ष्य में भारतीय न्यायिक व्यवस्था की स्थिति क्या…? अपेक्षा अनुरुप सुदृढ़ रह गई है। किसी भी राज्य की संस्कृति एवं सभ्यता के समुचित विकास के लिये अति सुरक्षा और व्यवस्था की नितांत आवश्यकता होती है। इस तथ्य के स्पष्टीकरण के लिये एक उदाहरण है जैसे आपके पास एक सौ रुपया है, जिसे आप अपने इच्छानुसार खर्च करने के लिये पूरी तरह स्वतंत्र हैं। तब आप एक अच्छा सा घोड़ा खरीदते हैं, और उस पर सवारी कर सरपट घोडा दौड़ाते हुए भीड़ भरे बाजार में चले जायें, चाहे इससे किसी का पैर कुचल जाये, किसी की दुकान उलट जाये या फिर भगदड़ मच जाये तब आपके इस कार्य की अनुमति न तो समाज ही दे सकता है और न ही सरकार बल्कि आपके ऐसा करने से सरकार आपको गिरफ्तार कर लेगी। ठीक यही दशा राष्ट्र की होती है। यदि किसी ’देश या राष्ट्र की सरकार जो सार्वभौम शक्ति की सूत्रधार होती है- अपने निरंकुश इरादों को संपूर्ण देश की जनता पर थोपती है. अथवा सरकार द्वारा नियुक्त कोई बड़ा अधिकारी या मंत्री अपने अधिकारों का दुरुपयोग करता है तब स्वतंत्र न्यायपालिका की महती आवश्यकता प्रतीत होती है।
         इस प्रकार स्वतंत्र न्यायपालिका जनता अथवा सरकार द्वारा उत्पन्न अराजकता के वातावरण में पूर्णतयाः नियंत्रण रखने की नितांत आवश्यक होती है। एक स्वतंत्र न्यायपालिका को देश की असीम शक्तियों पर नियंत्रण का उत्तरदायित्व वहन करना पड़ता है। वह जन समाज की उच्छृंखलताओं और उदण्डताओं पर नियंत्रण रखते हुये शासन संबंधी सुचारु व्यवस्था में अपना पूर्ण योगदान देती है। बिना स्वतंत्र न्यायपालिका के स्वस्थ, सबल और महान राष्ट्र की कल्पना करना असंभव है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि स्वतंत्र न्यायापालिका राष्ट्र की रीढ़ है, जिसकी शक्ति पर संपूर्ण राष्ट्र का शासन चक्र अविराम गति से घूमता रहता है।
           सरकार के प्रमुख अंग हैं कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका। इस प्रकारं सरकार का तीसरा अंग न्यायपालिका अपने कर्तव्यों ,उत्तरदायित्वों तथा अधिकारों का समुचित पालन तभी कर सकती है, जब वह व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका से सर्वथा स्वतंत्र रहे। यदि न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होगी और उन पर कार्यपालिका या व्यवस्थापिका का अंकुश होगा तो वह निष्पक्ष एवं कुशल प्रशासन का कार्य भार संभालने में असमर्थ, विवश और पंगु बनी रहेगी। यही कारण है कि मनीषियों, राजनीतिज्ञी एवं योग्य प्रशासकों ने सर्वसम्मति से इस बात को स्वीकार किया हैं कि राजतंत्र में ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र में भी लोकसमाज के अधिकारों की सुरक्षा के लिये स्वतंत्र न्यायपालिका का होना नितांत अनिवार्य है।न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये प्रतिभाशाली और विद्वान न्यायाधीशों की आवश्यकता होती है। अतः न्यायाधीशों के  उनके कार्य तथा उनक सत्यपरक न्यायों के लिये प्रत्येक राष्ट्र को मूलभूत आधारों का प्रश्रय लेना पड़ता है!

(1) न्याय की विधि ऐसी होनी चाहिये, जिससे नियुक्त न्यायाधिशों में पक्षपात अथवा किसी भी प्रकार का अनैतिक भाव उत्पन्न न हो सके। इसके लिये कठोर और विवेकशील विधि को ग्रहण करना चाहिये ताकि न्यायपालिका का कार्य स्वच्छ पक्षपात हीन किसी भी अन्य दबाव से मुक्त रहे।

(2) न्यायाधीशों के पदों पर उन्हीं व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिये जो विवेकशील, अनुभवी व  मानवीय नैतिक मूल्यों से परीपूर्ण हों तथा इन समस्त दायित्वों व विधि का अनुभव रखने वाला  विधिवेतत्ता होना चाहिये।

(3) न्यायाधीशों को उत्तम आचरण, आकर्षक और पर्याप्त उच्च स्तर के मूल्यों वाला होना नितांत आवश्यक है क्योंकि इसी कारण देश के विद्वान विधिवेत्ता इस कार्य की ओर आकृष्ट होंगे और पर्याप्त धनराशि मिलने पर भ्रष्टाचार तथा अन्य अनैतिक कार्यों के वाल्याचकों से सर्वदा दूर रहेंगे।

(4) न्यायाधीशों की पदावधि दीर्घ होनी परमावश्यक है। क्योंकि दीर्घ अवधि होने से वे लम्बे समय तक कार्य करने की आश्वस्त भावना के कारण ईमानदारी से अपने कार्य का संचालन करने में सर्वथा योग्य सिद्ध हो सकते हैं।

(5) न्यायाधीश की पूर्ण सुरक्षा और उनका संरक्षण होना आवश्यक है, जिससे कि उन्हें सरलता से पदच्युत न किया जा सके। यह स्थिति उन्हें निर्भीक और इमानदार बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। सरकार के विरुद्ध न्याय करने पर किसी न्यायाधीश को, अपने स्थगन का भय नहीं होना चाहिये। इसी तथ्य को समक्ष रखकर न्यायाधीश को पदच्युत करने की नीति और विधि का निर्माण होना चाहिये।

(6) न्यायपालिका को कार्यपालिका से सर्वथा स्वतंत्र रखा जाना चाहिये। अर्थात एक ही व्यक्ति को न्यायपालिका तथा कार्यपालिका की शक्तियों का साथ-साथ समावेश नही करना चाहिये। अन्यथा दोनों अंगों का एक ही कर्ताधर्ता कदापि निष्पक्ष, स्वतंत्र और निर्भीक नहीं हो सकता।स्वतंत्र न्यायपालिका की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि उसके न्यायाधीश को किसी भी प्रकार के दबाव अथवा राजनीतिक प्रभावों से मुक्त रखा जाता है। ताकि वे बिना किसी दबाव के निष्पक्ष न्याय का उत्तर दायित्व वहन कर सकें। यदि उन पर किसी अधिकारी, अथवा दल के नेता का अंकुश हो अथवा कोई अधिकार या दल विशेष के नेता उन्हें पदच्युत करने में समर्थ होंगे तो न्यायपालिका का न्याय निष्पक्ष होना असंभव होगा। इसीलिये न्यायपालिका सर्वथा स्वतंत्र रखी जाती है। स्वतंत्र तथा शक्तिशाली न्यायपालिका ही नागरिकों के स्वायत्तों का संरक्षण करती है। और उन्हें नागरिकता की चेतना से प्रबुद्ध बनाय रखती है।
         स्वतंत्र न होने की दशा में न्यायपालिका कार्य पालिका से प्रभावित होकर सदैव उन्हीं के अनुकूल कार्य संचालन करेगी तथा किसी भी समय नागरिकों के स्वायत्तों का अपहरण कर लेगी। इसीलिये न्यायपालिका स्वतंत्र रहकर कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के अनुचित कार्यों तथा आदेशों की उपेछा करके भी नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षण करती है। स्वतंत्र न्यायपालिका की शक्ति अद्भुत होती है। वह सरकार के अंगों पर पूर्ण नियंत्रण रखती है। यहां तक कि वह कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के कार्यों को अवैध घोषित कर सकती हैं। वह सरकार के उच्च पदाधिकारीयों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगा सकती है। इस प्रकार स्वतंत्र न्यायपालिका लोक समाज को पूर्ण सुरक्षा देने की दृष्टि से सरकार के अन्य अंगों पर पूर्ण नियंत्रण रखती है। लोकतंत्र शासन पद्धति में स्वतंत्र न्यायपालिका का अन्यतम महत्व है। यदि नागरिकों को स्वच्छ, निष्पक्ष और सत्य न्याय प्राप्त न हो तो उनका राज्य के ऊपर से विश्वास और निष्ठा हट जाती है। ऐसी स्थिति में प्रजातंत्र की मूल भावना को आघात लगने की आशंका बनी रहती है अतः लोकतंत्र की इस सुरक्षा के लिये स्वतंत्र न्यायपालिका का होना परम आवश्यक है। लार्ड ब्राइस ने स्वतंत्र न्यायपालिका को संविधान का प्रहरी घोषित किया है-“ क्योंकि स्वतंत्र न्यायपालिका ही संविधान की रक्षा करती है“। वह निर्भीक रूप से व्यवस्थापिका अथवा कार्यपालिका के उन समस्त कृत्यों का घोषित कर सकती है जो संविधन के प्रतिकूल हो। ऐसी स्थिति में. संविधान की व्याख्या के माध्यम से वह उनकी रक्षा करती है।स्वतंत्र न्यायपालिका जहां एक  ओर राष्ट्र के अंतर्गत आदर्श सुरक्षात्मक व्यवस्था बनाये रखने का कार्य करती है,, वहीं वह राज्य के प्रशासन में राज्य के सर्वप्रमुख राष्ट्रपति को तथा राज्य इकाइयों के प्रधान राज्यपालों को उचित परामर्श देने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। राजनीति के विद्वान ब्राइस ने स्वतंत्र न्यायपालिका के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणी इस प्रकार दी है- “न्यायपालिका की कार्यकुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता का दूसरा उदाहरण नहीं है। क्योंकि किसी अन्य वस्तु का नागरिक सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना उसके इस ’ज्ञान से कि वह एक निष्पक्ष, त्वरित और निश्चित न्याय आसन पर निर्भर रह सकता हैं। कानून को कुटिलता पूर्वक लागू किये जाने से यह समझना चाहिये कि नमक ने अपना स्वाद खो दिया है। व्यवस्था की आशा उस समय समाप्त हो जाती है, जब उसे दुर्बलतापूर्वक या उत्तेजनापूर्वक लागू किया जाए। यदि न्याय का दीपक अंधकार से आवृत्त हो जाय तो उससे उत्पन्न अंधकार का अनुमान लगाना कठिन है। ऐसी स्थिति में यदि यह कहा जाए कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था अस्वस्थ रही है तो वह निश्चित ही चिंताजनक विषय होगा। वह भी तब जब यह कथन किसी और ने नहीं बल्कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश माननीय श्री पी.  एन. भगवती ने कहा हो।भारतीय न्यायिक व्यवस्था के विध्वंस का मूलभूत कारण यह है कि भारतीय समाज में कानून और न्याय के प्रति सम्मान की भावना नहीं रह गई हैं ’वहां प्रत्येक व्यक्ति की रुचि कानून का पालन करने में नहीं वरन उसकी गिरफ्त में न आने के उपायों में है। कानून भी कुछ ऐसे ही बनाए जाते हैं कि उन्हें तोड़ना, उसके ऽ पालन करने से कही आसान होता है। जब किसी भी अपराधी की सहजता से जमानत पर रिहाई हो जाती हैं ताकि वह अपने खिलाफ सबूतों को मिटा सके और गवाहों को धमका सके, जब किसी वाद का अंतिम रूप से निर्णय होने में 8-10 वर्ष का समय लगता हो और जब ढहती हुई न्यायिक व्यवस्था को सुधारने की राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव हो तो न्याय की बात न करना ही श्रेय कर होगा। एक ओर तो भारतीय न्यायालय मुकदमों से पटे पड़े हैं और दूसरी ओर त्रासदी यह है कि न्यायाधीशों के अनेक पद वर्षों से रिक्त पडे हैं। यही नही न्यायालयों के आधे से अधिक न्यायाधीश विभिन्न न्यायिक जांच, आयोग आदि के कार्यों में रत हैं। हाल ही में एक समाचार ‌छपा था कि सरकार न्यायाधीओ की नियुक्ति महज इस कारण नहीं कर रही है कि उनके बैठने के लिये अनेक भवन बनाने पडेंगे। संसद को प्रेषित अपनी रिपोर्ट में विधि आयोग ने देश में न्यायाधीशों की संख्या में कम से कम पांच गुनी वृद्धि की अनुशंसा की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जनसंख्या और न्यायाधीश का अनुपात विश्व के प्रजातांत्रिक राष्ट्रों में सबसे कम है। आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए “राष्ट्रीय न्यायिक सेवा आयोग“ का – गठन किया जाना चाहिये। आवश्यकता से अधिक बोझ का एक दुष्परिणाम न्यायिक असंगति होती है। प्रायः न्यायाधीशों की परस्पर विचार विमर्श का अवसर भी नहीं मिल पाता और ऐसे अवसर भी आ जाते हैं जब एक ही प्रकार के मामलों में भिन्न भिन्न खण्डपीठ भिन्न-भिन्न निष्कर्षो में पहुंचती हैं, और कभी कभी तो परस्पर विरोधी निर्णय देते हैं। इसके अलावा और भी कारण हैं जिससे न्यायिक सेवाओं के प्रति जनमानस का रुझान कम होता जा रहा है। इन सेवाओं के वेतनमान और इनसे जुड़ी सुविधायें बहुत कम हैं। कुछ राज्यों में तो अधीनस्थ न्यायाधीशों के लिये आवास की व्यवस्था नहीं के बराबर है। कहीं कहीं तो समुचित न्यायालय भवन भी नहीं हैं। यदि हमें जनता जनार्दन को यह विश्वास दिलाना है कि उन्हें न्याय मिल सकता है तो जरूरी होगा कि अधीनस्थ न्यायालयों का मजबूत बनाया जाए यदि न्याय का दीपक बुझ जाए तो अंधकार कितना गहन होगा। इन शब्दों में स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व स्वतः ही उद्भाटित हो रहा द्य राष्ट्र में न्याय की अनुपस्थिति में अनिष्ट कारी तत्वों का तांडव अनेक विध्वंस रच सकता है। राक्षसी प्रवृत्तियां अराजकता का नग्न नाच प्रस्तुत कर सकती है। सबल दुर्बल को, धनवान गरीबों को और अधिकारी स्वायत्न विहीन लोगों को अपनी शक्ति के शिकंजे में जकड़ सकते हैं। अतः यह कहना आवश्यक नहीं है कि राष्ट्र में लोक मंगल की स्थापना और सुदृढ़ शासन की, व्यवस्था की सूत्रधार स्वतंत्र ’न्यायपालिका है। यह एक नियम है. व्यवस्था है और समस्त सृष्टि भी नियम और व्यवस्था के चक्रों पर ही चल रही है।

About Post Author

Subscribe to get news in your inbox