नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/- लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 6 साल पुरानी इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा- ये स्कीम असंवैधानिक है। बॉन्ड की गोपनीयता बनाए रखना असंवैधानिक है। यह स्कीम सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
5 जजों ने सर्वसम्मति से इस पर फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस ने कहा, ’पॉलिटिकल प्रोसेस में राजनीतिक दल अहम यूनिट होते हैं। वोटर्स को चुनावी फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है, जिससे मतदान के लिए सही चयन होता है।’
2018 से अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए सबसे ज्यादा चंदा भाजपा को मिला है। 6 साल में चुनावी बॉन्ड से भाजपा को 6337 करोड़ की चुनावी फंडिंग हुई। कांग्रेस को 1108 करोड़ चुनावी चंदा मिला।
1. सुप्रीम कोर्ट ने स्कीम को असंवैधानिक क्यों करार दिया?
-इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक करार दिया जाता है, क्योंकि इससे लोगों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन होता है और इसमें देने के बदले कुछ लेने की गलत प्रक्रिया पनप सकती है।
-चुनावी चंदा देने में लेने वाला राजनीतिक दल और फंडिंग करने वाला, दो पार्टियां शामिल होती हैं। ये राजनीतिक दल को सपोर्ट करने के लिए होता है या फिर कंट्रीब्यूशन के बदले कुछ पाने की चाहत हो सकती है।
-राजनीतिक चंदे की गोपनीयता के पीछे ब्लैक मनी पर नकेल कसने का तर्क सही नहीं। यह सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। निजता के मौलिक अधिकार में नागरिकों के राजनीतिक जुड़ाव को भी गोपनीय रखना शामिल है।
2. इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने वाले बैंक एसबीआई के लिए क्या कहा?
एसबीआई राजनीतिक दलों का ब्योरा दे, जिन्होंने 2019 से अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा हासिल किया है। एसबीआई राजनीतिक दल की ओर से कैश किए गए हर इलेक्टोरल बॉन्ड की डिटेल दे, कैश करने की तारीख का भी ब्योरा दे। एसबीआई सारी जानकारी 6 मार्च 2024 तक इलेक्शन कमीशन को दे।
3. चुनाव आयोग के लिए क्या गाइडलाइन दी?
SBI से मिलने वाली जानकारी को इलेक्शन कमीशन 13 मार्च तक अपनी ऑफिशियल वेबसाइट पर पब्लिश करे। ताकि जनता भी इनके बारे में जान सके।
4. राजनीतिक दलों के लिए फैसले में क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सीधा असर राजनीतिक दलों पर ही पड़ेगा, लेकिन इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों के लिए कोई निर्देश या स्टेटमेंट नहीं दिया है।
5. सबसे ज्यादा चंदा देने वाली कंपनियों को लेकर क्या कहा?
किसी एक व्यक्ति की ओर से दिए गए चंदे के मुकाबले किसी कंपनी की ओर से की गई फंडिंग का राजनीतिक प्रक्रिया पर ज्यादा असर हो सकता है। कंपनियों की ओर से की गई फंडिंग शुद्ध रूप से व्यापार होता है। चुनावी चंदे के लिए कंपनी एक्ट में संशोधन मनमाना और असंवैधानिक कदम है। इसमें कंपनियों और किसी एक चंदा देने वाले को एक जैसा बना दिया गया। इसके जरिए कंपनियों की ओर से राजनीतिक दलों को असीमित फंडिंग का रास्ता खुला।
6. मतदाता के अधिकारों को लेकर क्या कहा?
पॉलिटिकल फंडिंग की जानकारी के चलते मतदाता अपने वोट के लिए सही चुनाव कर सकता है। सारी राजनीतिक फंडिंग पब्लिक पॉलिसी में बदलाव के मकसद से नहीं होती है। छात्र, दिहाड़ी मजदूर आदि भी चंदा देते हैं। ऐसे में सिर्फ इसलिए चुनावी चंदे को गोपनीयता के दायरे में रखना, क्योंकि कुछ कंट्रीब्यूशन किसी और मकसद से किए गए हैं, यह अनुचित है।
7. कंपनियों के डोनेशन प्रोसेस में कब और क्या बदलाव किया गया?
कंपनी एक्ट 2013 के तहत कोई कंपनी किसी पॉलिटिकल पार्टी को चंदा दे सकती है। इसमें बदलाव से पहले कुछ शर्तें थीं। डोनेशन को बोर्ड की मंजूरी मिली हो, डोनेशन कैश में नहीं दिया जा सकता है, चंदे का जिक्र कंपनी के प्रॉफिट एंड लॉस अकाउंट में होना चाहिए, कंपनी 3 साल तक मिलने वाले औसत मुनाफे के 7.5 फीसदी से ज्यादा चंदा नहीं दे सकता है और जिस पार्टी को कंपनी चंदा दे रही है, उसका नाम बताना जरूरी था। 2017 में कंपनियों की ओर से दिए जाने वाले चंदे पर लगी लिमिट को हटा दिया गया। इसके साथ ही पार्टी का नाम बताने की बाध्यता भी खत्म कर दी गई।
8. कंपनी एक्ट में बदलाव पर सरकार ने क्या तर्क दिया था?
सरकार ने तर्क दिया था कि नाम जाहिर ना करने से कंपनी किसी तरह के बदले की भावना और अत्याचार से बच जाएगी। चंदा देने वाला सिर्फ यही चाहता है कि दूसरी पार्टियां इसके बारे में ना जान पाएं। जैसे एक कॉन्ट्रेक्टर के तौर पर मैं कांग्रेस को चंदा दूंगा पर यह नहीं चाहूंगा कि भाजपा को इसका पता चले, क्योंकि कल वो सरकार भी बना सकती है। डोनेशन की लिमिट हटाने पर सरकार ने कहा था कि यह लिमिट काम नहीं कर रही है, क्योंकि फंडिंग के लिए शेल कंपनियों का इस्तेमाल हो रहा है। 7.5 फीसदी की लिमिट हटाने से शेल कंपनियां बनाने की प्रोसेस को बढ़ावा नहीं मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने 2 नवंबर को फैसला सुरक्षित रखा था
ब्श्रप् डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने तीन दिन की सुनवाई के बाद 2 नवंबर 2023 को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच में सुनवाई हुई। इसे लेकर चार याचिकाएं दाखिल की गई थीं।
याचिकाकर्ताओं में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), कांग्रेस नेता जया ठाकुर और सीपीएम शामिल है। केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए थे। सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने याचिकाकर्ताओं की तरफ से पैरवी की थी।
2 नवंबर को फैसला सुरक्षित रखने के ठीक 4 दिन बाद 6 नवंबर को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने अपनी 29 ब्रांचों के जरिए इलेक्टोरल बॉन्ड इश्यू किए थे। 6 नवंबर से 20 नवंबर तक इश्यू किए गए बॉन्ड्स में 1000 करोड़ रुपए का चुनावी चंदा दिया गया।
क्या है चुनावी बॉन्ड ?
2017 के बजट में उस वक्त के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चुनावी या इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को पेश किया था। 2 जनवरी 2018 को केंद्र सरकार ने इसे नोटिफाई किया। ये एक तरह का प्रोमिसरी नोट होता है। जिसे बैंक नोट भी कहते हैं। इसे कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी खरीद सकती है।
अगर आप इसे खरीदना चाहते हैं तो आपको ये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चुनी हुई ब्रांच में मिल जाएगा। इसे खरीदने वाला इस बॉन्ड को अपनी पसंद की पार्टी को डोनेट कर सकता है। बस वो पार्टी इसके लिए एलिजिबल होनी चाहिए।
क्या है पूरा मामला
इस योजना को 2017 में ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई। 12 अप्रैल 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी पॉलिटिकल पार्टियों को निर्देश दिया कि वे 30 मई, 2019 तक में एक लिफाफे में चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें। हालांकि, कोर्ट ने इस योजना पर रोक नहीं लगाई।
बाद में दिसंबर, 2019 में याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने इस योजना पर रोक लगाने के लिए एक आवेदन दिया। इसमें मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताया गया कि किस तरह चुनावी बॉन्ड योजना पर चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक की चिंताओं को केंद्र सरकार ने दरकिनार किया था।
इस पर विवाद क्यों…
2017 में अरुण जेटली ने इसे पेश करते वक्त दावा किया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। ब्लैक मनी पर अंकुश लगेगा। दूसरी ओर इसका विरोध करने वालों का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान जाहिर नहीं की जाती है, इससे ये चुनावों में काले धन के इस्तेमाल का जरिया बन सकते हैं।
कुछ लोगों का आरोप है कि इस स्कीम को बड़े कॉर्पोरेट घरानों को ध्यान में रखकर लाया गया है। इससे ये घराने बिना पहचान उजागर हुए जितनी मर्जी उतना चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकते हैं।
जिस पार्टी को डोनेट कर रहे हैं वो एलिजिबल है, ये कैसे पता चलेगा?
बॉन्ड खरीदने वाला 1 हजार से लेकर 1 करोड़ रुपए तक का बॉन्ड खरीद सकता है। खरीदने वाले को बैंक को अपनी पूरी केवाईसी डीटेल में देनी होती है। खरीदने वाला जिस पार्टी को ये बॉन्ड डोनेट करना चाहता है, उसे पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम 1 फीसदी वोट मिला होना चाहिए। डोनर के बॉन्ड डोनेट करने के 15 दिन के अंदर इसे उस पार्टी को चुनाव आयोग से वैरिफाइड बैंक अकाउंट से कैश करवाना होता है।
चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी…
-कोई भी भारतीय इसे खरीद सकता है।
-बैंक को केवाईसी डीटेल देकर 1 हजार से 1 करोड़ रुपए तक के बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं।
-बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान गुप्त रहती है।
-इसे खरीदने वाले व्यक्ति को टैक्स में रिबेट भी मिलती है।
-ये बॉन्ड जारी करने के बाद 15 दिन तक वैलिड रहते हैं।
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