बिन भ्रमर के कहां खिल सकी है कली
फिर बहारों का मिलना कहाँ भाग्य में
दो किनारे कहां मिल सके हैं कभी
दो किनारो का मिलना कहां भाग्य में
मन की कुटिया बुहारे हुये एक सती,
बन के सबरी लिये बेर बैठी रही
राम के राह पर वो बिछा के नयन,
द्वार पर ही बहुत देर बैठी रही l
प्रेम मानक को कोई कैसे गढ़ता भले
भावनायें वचन की जो ना शुद्ध हो
प्रीत के पत्र कोई कैसे पढता भले
जब हृदय द्वार पहले से अवरुद्ध हो
भाव कैसे वो पहुँचाती अंतस तलक
चिट्ठीयों के लिए ढेर बैठी रही
राम के राह पर वो बिछा के नयन,
द्वार पर ही बहुत देर बैठी रही l
राम के संग वन में लखन जो गये
आंख बहती हुई एक नदी हो गई
राम के साथ तो संगिनी थी मगर
उर्मिला की सकल जिंदगी खो गई
पूरे चौदह बरस बिरहनी उर्मिला
ले के किस्मत का बस फेर बैठी रही
राम के राह पर वो बिछा के नयन,
द्वार पर ही बहुत देर बैठी रही l
मनीष मधुकर


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