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    चुपके से कश्मीरियत पर मन की बात कर गये फारूख अब्दुला,

    -कहा- असल में मैं मुसलमान नही कश्मीरी पंडित हूं, कश्मीरी पंडितों के वंशज है कश्मीरी मुसलमान -प्रगति मैदान में कश्मीरियत पर आधारित विश्व पुस्तक मेले के उद्घाटन पर कश्मीरी भाषा, रहन-सहन व वातावरण पर पूर्व केंद्रीय मंत्री ने रखी अपनी बात
    NM News Farukh Abdulla

    नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/द्वारका/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- कश्मीर में बदलती फिजा का असर अब नेताओं पर भी दिखने लगा है। जिसके चलते कश्मीरी मुसलमान नेता अब अपनी मूल जड़ों से जुड़ने के लिए अपनी पहचान खुलकर साबित करने लगे है। ऐसा ही एक वाक्या उस समय सामने आया जब कश्मीरी मुसलमान नेता फारूख अब्दुला ने चुपके से कश्मीरियत पर अपने मन की बात कर अपने कश्मीरी पंडित होने का दावा कर सबको चैंका दिया। हालांकि यही बात कुछ समय पहले हमारे प्रधानमंत्री ने भी कही थी जिसका शायद अब असर दिखने लगा है।
    जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केंद्रीय मंत्री फारूख अब्दुला ने बुधवार को प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेेले कश्मीरी भाषा में पहली बार प्रकाशित बच्चों की किताबों के विमाचन अवसर पर कहा कि मैं मुसलमान नहीं, असल में कश्मीरी सरस्वती पंडित हूं, जोकि वर्षों पहले कश्मीरी ब्राह्मण से मुसलमान बने थे। कश्मीरी मुसलमान दरअसल कश्मीरी पंडितों की ही उपज है। इसी के चलते आज भी मुझमे कश्मीरी पंडित की जुबां हैं।
    फारुख अब्दुला के मुताबिक, आजादी के बाद दिल्ली हूकुमत को डर था कि कहीं कश्मीर भी हिन्दुस्तान से अलग न हो जाए। इसी डर के चलते दिग्गज राजनेताओं ने कश्मीर और कश्मीरी भाषा को आगे बढ़ने से रोकने के लिए उसे खामोश कर दिया। स्कूलों में कश्मीरी भाषा के विषय को पढ़ने पर रोक लगा दी गई। कश्मीरी बड़ी मुश्किल से शायरी व शादियों के गानों ने जिंदा रखी। हालांकि उन्होंने सत्ता में आने के बाद कश्मीरी भाषा के संरंक्षण के लिए कल्चरल एकेडमी गठित की, लेकिन वह राजनीति का शिकार हो गई। उन्होंने दक्षिण भारतीय राज्यों का उदाहरण देते हुए कहा कि वे आज अपनी भाषा व परंपराओं के चलते अलग पहचान लिए हैं। इसी का अनुसरण हमारी युवा पीढ़ियों को भी करना होगा। फारुख अब्दुल्ला ने युवाओं से आह्वान किया कि वे कश्मीर में रहे या फिर दिल्ली या अमेरिका, अपनी भाषा व मिट्टी की महक व परंपराओं को सदैव याद रखना चाहिए। इस कार्यक्रम के अंत में विशेष रूप से आमंत्रित स्कूली बच्चों को फारुख ने मंच पर बुलाया।
    फारुख ने बचपन की यादों को सांझा करते हुए कहा कि उनके घर में कश्मीरी बोलने का माहौल नहीं था, लेकिन उन्हें अपने नौकर के आने का इंतजार रहता था कि कहानियों के माध्यम से वे कश्मीरी से रूबरू हो सकें। आज कश्मीरी परिवारों में बच्चों को कश्मीरी की बजाय अंग्रेजी बोलने पर बढ़ावा दिया जाता है। अपनी जुबां को गिराकर कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता है। सरकार तो पाठ्यक्रम में कश्मीरी को शामिल कर सकती है, लेकिन उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए अभिभावकों को ही शुरुआत करनी होगी। उन्होंने मुख्यमंत्री व अपने बेटे उमर अब्दुला का उदाहरण देते हुए बताया कि मां विदेशी है, जिसके चलते घर में अंग्रेजी बोलने का चलन है। उमर भी कश्मीरी नहीं बोलता था, लेकिन मैंने उसे समझाया कि जनता के बीच भाषा ही जोड़ेगी।
    बच्चों की इन पुस्तकों में चलचित्र एक महीने तक कश्मीरी रहन-सहन, वातावरण व पहनावे पर सर्वे के आधार पर तैयार किए हैं। हालांकि युवाओं पर आधारित अन्य 15 पुस्तकें जल्द ही मार्केट में होंगी, जिन्हें श्रीनगर में विमोचित किया जाएगा।

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