इश्क़ में जो पड़ा सिर्फ बेखुद हुआ होश में कब जिया है कोई प्यार में
मैंने रावण सा कोई हरण ना किया
भाव में वासना का वरण ना किया
रोज़ वन में यूँ दर दर भटकता रहा
रामजी के हमेशा मैं किरदार में
इश्क़ में जो पड़ा सिर्फ बेखुद हुआ
होश में कब जिया है कोई प्यार में
तन से तन की जो दूरी है, दूरी नहीं
बिन मिलन भी कहानी अधूरी नहीं
जीत जाने में उतना मज़ा ही नहीं
जितना अनुपम मज़ा है प्रिये हार में
इश्क़ में जो पड़ा सिर्फ बेखुद हुआ
होश में कब जिया है कोई प्यार में
कोई काया की कस्तूरी मांगी नहीं
कोई लखन-रेख तो मैंने लांघी नहीं
प्रेम का एक अपना है आनंद पर
एक अद्भुत कसक है जी टकरार में
इश्क़ में जो पड़ा सिर्फ बेखुद हुआ
होश में कब जिया है कोई प्यार में
सब्र में है मज़ा इंतेहा में नही
जो है ना में मज़ा वो रज़ा में नहीं
यूँ तो स्विकार होता सुखद है मगर
ज़ायका ही अलग है जी इनकार में
इश्क़ में जो पड़ा सिर्फ बेखुद हुआ
होश में कब जिया है कोई प्यार में
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