सटीक जानकारी के बिना पहाड़ों पर ट्रैकिंग हो सकती है जानलेवा,

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सटीक जानकारी के बिना पहाड़ों पर ट्रैकिंग हो सकती है जानलेवा,

-पहाड़ों पर जाने से पहले चैक कर लें अपने जरूरी सामान की लिस्ट, ना करे लापरवाही, रहे सुरक्षित

विशेष न्यूज/शिव कुमार यादव/- अप्रैल से जून तक उंचे पहाड़ों पर बर्फ पिघलने की शुरूआत के साथ ही शुरू हो जाता है पहाड़ों का रोमांचित कर देने वाला सफर लेकिन अकसर रोमांच के चक्कर में यात्री पहाड़ों की मनमोहक यात्रा से जुड़ी सटीक जानकारी लेना ही भूल जाते है। उनकी यही लापरवाही कई बार जानलेवा साबित हो जाती है। हालांकि प्रशासन द्वारा सटीक जानकारी और ट्रैकिंग को लेकर काफी जानकारी उपलब्ध कराई जाती है लेकिन फिर भी लोग स्थानीय एजेंसिंयों के चक्कर में पड़कर नियमों का पालन नही करते और अपनी जिंदगी के साथ खिलवाड़ कर बैठते हैं और यही लापवाही उनके लिए जानलेवा साबित हो जाती है। ऐसे में ट्रैकरर्स व यात्रियों को पहाड़ों पर जाने से पहले अपनी ट्रैकिंग के सामान की जरूरी लिस्ट को जांच लेना चाहिए। ताकि आपातकाल के समय ये सब चीजें आपके काम आ सके और आपकी जान बचा सकें। आईये जानते है पहाड़ों पर ट्रैकिंग के लिए किन-किन चीजों की जरूरत होती है और कौन सा समय ट्रैकिंग के लिए सही होता है।

हर साल पहाड़ों पर हादसे होते है और अनेकों लोग इसके शिकार होते है फिर भी लोग बिना पूरी तैयारी के ही पहाड़ों की यात्रा पर निकल पड़ते है। बीते 29 मई को गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग से सिल्ला गांव की ओर कुस-कल्याण होते हुए सहस्त्रताल (14,500 फुट) तक ट्रैकिंग के लिए कर्नाटक और महाराष्ट्र के 22 लोग बर्फीली हवा में फंस गए थे, जिनमें छह महिलाओं समेत नौ लोगों की मौत हो गई। शेष 13 लोगों को राज्य एवं केंद्र सरकार की आपदा प्रबंधन एजेंसी और वायुसेना की मदद से बचाया गया। वर्ष 2021 में आईटीबीपी पेट्रोलिंग के दौरान हिमस्खलन से तीन कुलियों की मौत हो गई थी। वर्ष 2022 में द्रौपदी का डांडा-2 चोटी पर चढ़ाई के दौरान हिमस्खलन में 28 लोगों की मौत हो गई थी। वर्ष 2023 में रूनसारा-ताला ट्रैक और गंगोत्री कालिंदी खाल में तीन ट्रैकर्स की मौत हो गई थी, जबकि मौसम विभाग ने अलर्ट भी किया था। हिमालय में साहसिक पर्यटन और पर्वतारोहण के लिए लाखों देशी-विदेशी सैलानी प्रतिवर्ष ऊंची-ऊंची बर्फीली चोटियों पर पहुंचकर गौरवान्वित महसूस करते हैं। लेकिन पीढ़ियों से रह रहे स्थानीय लोग ही बता सकते हैं कि किस महीने में किस चोटी पर जाना अधिक उचित और सुरक्षित हो सकता है।

स्थानीय लोग भी बड़ी संख्या में प्रतिवर्ष सहस्रताल पहुंचने के लिए खड़ी चढ़ाई पार करते हैं। लेकिन उनके वहां जाने का समय जुलाई के अंतिम सप्ताह से सितंबर के अंत तक है। वहां ऐसे अनेकों रास्ते हैं, जहां से बहुत सारे लोग बस्तियों तक पहुंच जाते हैं। अप्रैल से जून तक तेजी से बर्फ पिघलने का समय होता है, इसलिए बर्फीले तूफान भी आते हैं। जुलाई के बाद बारिश होने से बर्फीले तूफान की गति धीमी पड़ जाती है और बर्फ पिघलना कम हो जाता है। इन महीनों में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बहुत पतली वर्षा देखने को मिलती है, जिसमें भीगने पर पर्यटकों को आनंद महसूस होता है। यहां ब्रह्मकमल के पुष्प और बुग्याल के मनोरम दृश्य, सामने ऊंची चोटियों पर चांदी की तरह चमकने वाली बर्फ स्वर्ग का एहसास कराती है। सहस्रताल ग्लेशियर लगभग 40 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। ’सहस्त्रताल’ नाम इसलिए है कि यहां पर बर्फ की सैकड़ों झीलें हैं, जहां से धर्मगंगा, बालगंगा, भिलंगना, पिलंगना जैसी पवित्र नदियां बहकर टिहरी बांध के जलाशय में भागीरथी में मिलती हैं। इसलिए सहस्रताल ट्रैकिंग के लिए टिहरी गढ़वाल के प्रसिद्ध तीर्थ बूढ़ा केदारनाथ और भिलंग से होकर भी जाते हैं।

चूंकि ऊंचाई पर ऑक्सीजन की बहुत कमी हो जाती है, इसलिए 60 वर्ष से ऊपर के लोगों को वहां पहुंचने में कठिनाई होती है। यहां ट्रैकिंग पर निकले 22 लोगों की टीम में चार लोग 60 वर्ष से ऊपर थे, जिनका पहले स्वास्थ्य परीक्षण भी नहीं किया गया था। उनके पास ट्रैकिंग संबंधी पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध नहीं थे। उत्तरकाशी के जिलाधिकारी डॉ. मेहरबान सिंह बिष्ट ने एक स्थानीय ट्रैकिंग एजेंसी पर रोक लगाई है, क्योंकि उसने 22 ट्रैकर्स के साथ मात्र तीन पोर्टल गाइड ही भेजे थे। इसके लिए कोई ’मानक संचालन प्रक्रिया’ (एसओपी) भी नहीं बनाई गई है। सच्चाई यह भी है कि स्थानीय ट्रैकिंग एजेंसियों का काम सिंगल विंडो सिस्टम में पंजीकरण और गाइड उपलब्ध कराने तक ही सीमित है। बड़ी ट्रैकिंग कंपनियों से कम बजट मिलने से भी स्थानीय एजेंसियां नियमों के पालन पर ज्यादा ध्यान नहीं देतीं। स्थानीय मौसम और उपयुक्त समय को नजर अंदाज करने वाली बंगलूरू, दिल्ली, मुंबई, गुरुग्राम, पुणे, कोलकाता आदि की मुनाफाखोर ऑनलाइन एग्रीगेटर कंपनियां भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।
         कुछ स्थान ऐसे हैं, जहां जाने के लिए पर्वतारोहण जैसे अभियान के स्तर की तैयारी होनी चाहिए। नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रधानाचार्य कर्नल अंशुमन भदौरिया कहते हैं कि ट्रैकिंग व पर्वतारोहण अभियान के दौरान मौसम पूर्वानुमान लेना जरूरी होता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में कम और अनुभवहीन कर्मचारी को 20-25 पर्यटकों को संभालने का दायित्व सौंपना खतरनाक हो सकता है।

सबसे ज़रूरी चीज़ है- जूते।
आपके पास ट्रैकिंग करने के लिए अच्छे ग्रिप वाले जूते होना बहुत ज़रूरी हैं। ट्रेल रनिंग, हाईकिंग या ट्रेकिंग में से अपनी जरूरत के हिसाब से जूतों का चुनाव किया जा सकता है। ट्रैकिंग के दौरान बारिश में भीगना आम बात है। कई बार छोटी नदी या नाले भी पार करने पड़ सकते हैं और बर्फ़ में भी चलना पड़ सकता है, इसलिए वॉटरप्रूफ जूते होना फायदेमंद रहता है।

दूसरा, एक अच्छा और मजबूत बैग होना ज़रूरी है जिसका चुनाव ट्रैक की अवधि के आधार पर किया जाता है। मेरे ट्रैक आमतौर पर 2 से 5 दिन के बीच होते हैं इसलिए मैं ुनमबीनं का 50 लीटर का बैग इस्तेमाल करता हूँ।

इसके अलावा बारिश से बचने के लिए रेनकट या विंडचीटर जैकेट और ओवर ट्राउज़र हमेशा साथ रखना चाहिए। बैग में कपड़े व इलेक्ट्रॉनिक उपकरण पैक करते समय प्लास्टिक के बड़े लिफाफों में पैक कर के अच्छे से वाटर प्रूफिंग करनी चाहिए। सूर्य की तेज किरणों से बचने के लिए एक राउंड हैट और गॉगल्स फायदेमंद रखते हैं। खास कर चश्मे से बर्फ़ में स्नो ब्लाइंडनेस का खतरा नहीं रहता है।

जिस ऊंचाई पर आप कैम्प करेंगे या रात बिताएंगे वहां की सर्द रात में जीवित रहने के लिए एक बढ़िया स्लीपिंग बैग होना ज़रूरी है, जिसकी क़्वालिटी से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। माईनस 20 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की रेटिंग का स्लीपिंग बैग अच्छा रहता है। उसके अलावा वॉटर प्रूफ टेंट और कम से कम 6 मिलीमीटर मोटाई की स्लीपिंग मैट साथ रखनी चाहिए जिसे टेंट के अंदर बिछाया जाता है।

सर्दी से बचने के लिए आपके पास अच्छा जैकेट, फलीस जैकेट और एक ट्राउज़र होना चाहिए। एक मेडिकल किट जिसमें ज़रूरत की सभी दवाइयां, गर्म पट्टी, मूव, ग्लूकोज इत्यादि होने चाहिए। पानी की एक लीटर की बोतल हमेशा साथ रखनी चाहिए। अच्छी क़्वालिटी की टॉर्च और बैटरी बैंक साथ रखना बेहद ज़रूरी है। स्विस नाइफ या कोई अन्य धारदार चाकू पास होना फायदेमंद रहता है।

डिकैथलॉन की वेबसाइट या स्टोर पर ट्रेकिंग के लिए ये सब सामान किफ़ायती दामों पर उपलब्ध है। बजट और पसन्द के आधार पर किसी अन्य ब्रांड से भी ये सब सामान खरीदा जा सकता है।
         हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में पर्यटकों के पहुंचने से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है, क्योंकि वे जंगल की लकड़ी से खाना बनाकर आग भी नहीं बुझाते और कूड़ा-कचरा भी छोड़कर चले आते हैं। सिंगल विंडो सिस्टम में ट्रैकिंग अनुभव और बीमा की निगरानी व परीक्षण की तो कोई बात ही नहीं है। इसके लिए अब एसओपी बनाने पर विचार किया जा रहा है। अगर अब भी लापरवाही बरती गई, तो सैलानियों के जीवन की सुरक्षा मुश्किल में पड़ जाएगी।

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