मानसी शर्मा/- पाकिस्तान इस समय अपने ही बनाए जाल में फंसा नजर आ रहा है। लाहौर में हिंसक झड़पों और इस्लामाबाद की फौजी किले जैसी सुरक्षा व्यवस्था ने इस संकट की गंभीरता को उजागर कर दिया है। इसके केंद्र में है एक कट्टरपंथी संगठन – तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP)। कभी पाकिस्तान की फौज का ‘पसंदीदा औज़ार’ रहा यह संगठन अब उसी के लिए एक बड़ा खतरा बन चुका है। TLP को फौज ने खुद नागरिक सरकारों पर दबाव बनाने के लिए खड़ा किया था, ठीक उसी तरह जैसे भारत के खिलाफ लश्कर और जैश को खड़ा किया गया था।
सड़क से सत्ता तक, फौज का दोहरा खेल
TLP की शुरुआत 2015 में हुई थी और तभी से यह संगठन बार-बार पाकिस्तान को अस्थिर करता रहा है। 2017में इस्लामाबाद में 21दिन का धरना, जिसमें एक फौजी अफसर को प्रदर्शनकारियों को पैसे बांटते हुए देखा गया, यह दिखाता है कि किस तरह यह खेल खेला गया। जब भी हालात बिगड़ते हैं, पाक फौज ‘मध्यस्थ’ बनकर सामने आती है, जबकि पर्दे के पीछे वही संगठन को बढ़ावा देती है। TLP का हर उग्र प्रदर्शन, धार्मिक भावनाओं को उकसाकर सड़कों पर भीड़ जुटाने की रणनीति, इस दोहरे खेल का हिस्सा है।
इमरान खान और TLP की सियासी नजदीकी
2021में TLP के उग्र आंदोलन और हिंसा के बाद, इमरान खान सरकार ने इस पर लगे प्रतिबंध को हटाया। सआद रिज़वी और हजारों समर्थकों को रिहा कर दिया गया। पाक फौज की मध्यस्थता से हुए इस गुप्त समझौते ने दिखा दिया कि TLP सिर्फ एक धार्मिक संगठन नहीं, बल्कि सत्ता का खेल खेलने वाला मोहरा है। 2018के चुनावों में भी इसका इस्तेमाल नवाज़ शरीफ की पार्टी को कमजोर करने के लिए किया गया था।
अब खुद ही फंस गया है पाकिस्तान
आज जब TLP इस्लामाबाद की ओर कूच कर रहा है और हिंसा भड़का रहा है, तो यह पाकिस्तान की उस नीतिगत भूल का नतीजा है जिसमें उसने धार्मिक संगठनों को राजनीतिक हथियार बना लिया। मानवाधिकार कार्यकर्ता और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं साफ कह रही हैं कि यह हालात पाकिस्तान की दशकों पुरानी नीतियों का ही परिणाम हैं। अब वही संगठन, जो फौज के इशारे पर चलते थे, आज पूरे देश की स्थिरता को चुनौती दे रहे हैं – एक ऐसा फ्रैंकनस्टाइन जो अपने ही निर्माता को निगलने को तैयार है।


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