सांस्कृतिक, धार्मिक , सामाजिक और क्षेत्रीय भिन्नताओं में एकता वाले देश भारत में साल भर होने वाले पर्वों का आयोजन भी मौसम की ऋतुओं के आधार पर सुनिश्चित होता है और मौसमी ऋतुओं के साथ ही हर पर्व और त्योहार साल की कुछ निश्चित फसलों पर आधारित भी होते हैं। भारतीय पंचांग के अनुसार फाल्गुन के महीने की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि की रात्री को होलिका दहन के बाद अगले दिन चैत्र महीने की प्रतिपदा को रंग और फूल से खेली जाने वाली होली भी फसलों का ही एक ऐसा ही त्यौहार है। इस पर्व के अवसर पर गेहूं की फसल पक कर तैयार होती है इसीलिए होली के ज्यादातर व्यंजन गेहूं से ही तैयार होते हैं चाहे वो मीठी गुजिया हो या फिर नमक पारे वाली कोई नमकीन या फिर कोई अन्य पकवान। भारतीय पंचांग की तिथि वार मान्यता के अनुसार इसे साल का अंतिम त्योहार भी माना जा सकता है क्योंकि यह त्योहार साल के अंतिम महीने फाल्गुन की पूर्णिमा को होलिका दहन के बाद मनाया जाता है।
रंग खेलने के पाँच दिन पहले फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी जिसे रंग एकादशी कहा जाता है। होली के पर्व की शुरुआत हो जाती है और रंग की होली खेलने के पाँच दिन बाद होने वाली रंग पंचमी को इस पर्व का समापन किया जाता है। इस तरह पूरे दस दिन तक आयोजित होने वाला होली का यह पर्व साल के दो महीनों का संक्रांति पर्व भी है क्योंकि इसकी शुरुआत तो फाल्गुन माह के अंतिम पाँच दिनों में होती है लेकिन इसका समापन नए साल के पहले महीने चैत्र माह के प्रथम पाँच दिनों में होता है। होली का दस दिनी पर्व मनाने की यह परंपरा अब देश के कुछ ही इलाकों तक सीमित रह गई है। जिनमें एक इलाका मध्य प्रदेश के इंदौर का मालवा इलाका भी है। इस इलाके में आज भी रंग पंचमी को ही होली का समापन करने की परंपरा है। जबकि, चैत्र माह की प्रतिपदा इस बार 13 मार्च को रंग एकादशी से होली पर्व की शुरुआत हो चुकी है। 17 मार्च को पूर्णिमा की रात होलिका दहन के बाद 18 मार्च को होली खेलने और 21-22 मार्च को रंगपंचमी की तिथियाँ पहले से ही तय हैं ।
होली को लेकर कई तरह की पौराणिक कथाएं सुनी जाती हैं। ऐसी ही एक कथा-शिव और पार्वती से संबंधित भी है जिसके अनुसार हिमालय पुत्री पार्वती की इच्छा थी कि शिव से उनका विवाह हो जाए पर तपस्या में लीन शिव की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। तब कामदेव पार्वती की सहायता को आए. उन्होंने पुष्प बाण चलाया और भगवान शिव की उनके क्रोध के रूप में स्वीकार कर लिया.। इस कथा के आधार पर होली की आग में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकत्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।
.एक अन्य कथा के अनुसार, कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति ने विलाप किया और शंकर भगवान से कामदेव को जीवित करने की गुहार की. ईश्वर प्रसन्न हुए और उन्होने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया.यह दिन होली का दिन होता है। इस त्यौहार को लेकर एक सर्व प्रचलित कथा प्रह्लाद और होलिका से भी जुड़ी है.। विष्णु पुराण में इसका उल्लेख है जिसके अनुसार प्रह्लाद के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या कर देवताओं से अमरत्व का एक ऐसा वरदान हासिल कर लिया था जिसके मुताबिक उसे न तो पृथ्वी पर मारा जा सकता है न आकाश में, न रात न दिन कभी भी उसे मारा नहीं जा सकता है। यही नहीं न तो उसे घर के अंदर मारा जा सकता है न बाहर उसे न इंसान मार सकता है और न ही कोई पशु ही उसे मार सकता है। न वह दिन में मरेगा और न रात मे और न अस्त्र से ही उसे मारा जा सकता है। यह वरदान प्राप्त करने के बाद वह स्वयं को अमर समझ कर नास्तिक और निरंकुश हो गया था। वह चाहता था कि उनका पुत्र भगवान की आराधना छोड़ दे, परन्तु प्रह्लाद इस बात के लिये तैयार नहीं था.। हिरण्यकश्यपु ने उसे बहुत सी प्राणांतक यातनाएं दीं, उधर हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। अतः उसने होलिका को प्रह्लाद को लेकर आग में प्रवेश करने का आदेश दे दिया ताकि वरदान के चलते होलिका तो आग से बच जाए लेकिन प्रह्लाद उसमें जलकर मर जाए. परन्तु इसके विपरीत प्रह्लाद तो उस अग्नि में बच गया लेकिन होलिका उस अग्नि में जल गई ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ.। इस घटना की याद में लोग होलिका जलाते हैं और उसके अंत की खुशी में होली का पर्व मनाते हैं.।
भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा के अनुरूप यहाँ का हर पर्व अधर्म पर धर्म की और बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है पर हर पर्व को समय, काल और दश दिशा के अनुरूप मनाने के तरीके अलग-अलग होते हैं। जहां दिवाली और दशहरा के पर्व दीप जलाकर और आतिशबाजी कर उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। वहाँ होली का यह पर्व फूल और रंग के साथ मनाया जाता है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि बसंत ऋतु के आसपास मनाए जाने वाले इस पर्व के मौके पर पृथ्वी तरह दृ तरह के फूलों से समृद्ध होती है और नाना प्रकार के रंग प्रकृति में समाए होते हैं। मौसम भी सुहावना होता है और उसका असर पर्व मनाने की परंपरा में भी साफ दिखाई देता है। देश अलग दृ अलग अंचलों में अलग-अलग तरह से रंगों का यह त्योहार मनाया जाता है लेकिन ब्रज की होली की परंपरा सबसे अनूठी मानी जाती है। इस त्यौहार की एक विशेषता इस रूप में भी देखी जा सकती है कि ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, धनी- गरीब, जाति-धर्म और रंगभेद की भावना से ऊपर उठ कर सभी लोग आपस में गले मिल कर इस सार्वजनिक समारोह में शामिल होते हैं। दुर्भाग्य से पर्व की यह स्वस्थ परंपरा अब टूटती दिखाई देने लगी है ।
ब्रज की होली देश में ही नहीं पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। ब्रज क्षेत्र में होली का अलग ही एक महत्व है। यहाँ होली का त्योहार एक-दो दिन नहीं बल्कि हफ्ते भर तक मनाया जाता है। होली का यह पर्व हंसीं दृ मजाक से भरपूर होता है और इस पर्व के अवसर पर देवर दृ भाभी , साली दृ जीजा और सलहज जैसे दूसरे रिश्तों के बीच हंसीं दृ मजाक भी बहुत चलता है और कोई भी इसका बुरा नहीं मानता ।ब्रज कगेटर के नन्दगाँव , बरसाना, वृंदावन और मथुरा की होली का प्रभाव इस क्षेत्र से लगे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाना और दिल्ली से लगे इलाकों में भी खूब देखा जाता है। ब्रज क्षेत्र में होली की शुरुआत मथुरा के रमणरेती से होती है। माना जाता है कि श्री कृष्ण ने होली की शुरूआत इसी स्थान से करते थे। यहां पर श्रीकृष्ण राधा के साथ फूलों की होली खेलते हैं।
हमारे देश में होली के अनेक रंग देखने को मिलते हैं ब्रज से अलग देश के बंगाल और ऑडिशा राज्यों में होली को डोल पूर्णिमा कहा जाता है। बंगाल में इस दिन राधा और कृष्ण की प्रतिमाओं को और ऑडिशा में भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा को डोली में बैठाकर उसकी झांकी पूरे शहर में निकालते हैं।
उधर, मध्य प्रदेश के इंदौर समेत पूरे मालवा अञ्चल में इस पाँच दिनी पर्व का समापन रंगपंचमी के रूप में होता है । वहीं राजस्थान के बाड़मेर समेत कई इलाकों में पत्थरमार होली का चलन है । इसी राज्य के अजमेर समेत अलग दृ अलग इलाकों में अलग दृ अलग तरीके से होली खेली जाती है । इस राज्य के सलंबर नामक कस्बे के युवक घूंघरू और रूमाल से बंधे एक बांस को हाथ में लेकर नृत्य करते हैं और युवतियाँ फाग के गीत गाती हैं।
देश के सुदूर उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर में होली के छह दिनी आयोजन की शुरुआत घास की एक कुतिया जलाने से होती है । इसके बाद शहरों और गाँव में घर दृ घर घूम कर बच्चे कुछ पैसे या उपहार प्राप्त करते हैं
कर्नाटक में होली के त्योहार को कामना हब्बा के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव ने कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से जला दिया था। इसलिए, इस दिन लोग कूड़ा−करकट फटे वस्त्र, एक खुली जगह एकत्रित करके उन्हें अग्नि को समर्पित करते हैं।
गुजरात में भील जाति के लोग बेहद अलग अंदाज में होली मनाते है। वह होली को गोलगधेड़ों के नाम से मनाते हैं। इसमें किसी बांस या पेड़ पर नारियल और गुड़ बांध दिया जाता है उसके चारों और युवतियां घेरा बनाकर नाचती हैं। युवक को इस घेरे को तोड़कर गुड़, नारियल प्राप्त करना होता है। इस प्रक्रिया में युवतियां उस पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो जिस युवती पर वह गुलाल लगाता है वह उससे विवाह करने के लिए बाध्य हो जाती है।
हरियाणा की होली में देवर−भाभी के अनूठे व प्रेम भरे रिश्तों के रंग देखने को मिलते हैं। यहां पर धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है।
पंजाब की होली में में दौड़ते हुए घोड़ों पर सवार हथियार बंद सिख योद्धा देखने को मिलते है। पंजाब के होला मोहल्ला द्वारा यह त्यौहार 1701 से कुछ इसी अंदाज में मनाया जाता रहा है। होला मोहल्ला दो से तीन दिन तक लगातार मनाया जाता है। आखरी दिन चरण गंगा नदी के किनारे इस त्यौहार को मानाने के लिए कई सिख युवा आते हैं जो अपने युद्धकौशल का परिचय देते हैं।
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