अशोक महान् बिंदुसार के पुत्र थे, यद्यपि अशोक बड़े पुत्र नहीं थे पर बिंदुसार के बाद गद्दी पर वही बैठे। अपने पिता के समय में वह उज्जैन का सूबेदार रह चुका था और तक्षशिला का विद्रोह उसी ने दबाया था। उसे शासन का काफी अनुभव था। अशोक 269 ई. पू. गद्दी पर बैठा। कुछ ग्रंथों का कहना है कि वह अपने भाईयों की हत्या करके गद्दी का अधिकारी बना। पर यह बात गलत है क्योंकि उसके कुछ भाई तो बाद में भी उसके साथ रहते थे। पर गद्दी पर बैठने के समय अशोक को कुछ संघर्षो का सामना अवश्य करना पड़ा था, क्योंकि वह 269 ई. पू. में गद्दी पर बैठा जबकि बिंदुसार की. मृत्यु 273 ई. पू. में हो चुकी थी। बीच के तीन – चार वर्ष संघर्ष के कारण ही अशोक का राज्याभिषेक नहीं हो पाया।
अशोक के गद्दी पर बैठने के बाद के सात वर्षों के संबंध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। उसके राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में अर्थात 262 ई. पू. में एक ऐसी घटना हुई जिसने अशोक के जीवन में एक महान परिवर्तन कर दिया। यह घटना थी कलिंग का युद्ध । अशोक ने भी अपने पिता तथा पितामह की भाँति दिग्विजय की नीति अपनाई थी। एक विशाल सेना लेकर अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण किया। आधुनिक उड़ीसा तथा गंजम के क्षेत्र को उस समय कलिंग कहा जाता था। कलिंग के राजा ने बड़ी वीरता से अशोक का सामना किया, पर अंत में उसकी पराजय हो गई। इस युद्ध में भयानक रक्तपात हुआ। 1,50,000 शत्रु बंदी हुये, 1,00,000 हताहत हुये, और इससे कई गुना मर गये। स्पष्ट है कि इस युद्ध में कितना भीषण रक्तपात हुआ होगा। युद्ध के निर्मम रक्तपात से अशोक के हृदय को बहुत ठेस पहुँची और उसने निश्चय कर लिया कि भविष्य में वह कभी युद्ध नही करेगा। वह राज्य जीतने के बजाय लोगों का हृदय जीतेगा, और दिग्विजय करने के बजाय धर्मविजय करेगा। कलिंग का युद्ध अशोक के जीवन में एक बहुत बड़ा मोड था।
कलिंग युद्ध में जो बर्बादी हुई, इसके लिये अशोक अपनी साम्राज्य लिप्सा को ही उत्तरदायी मानता था। पर इतनी बर्बादी के कारण उसका हृदय द्रवित हो गया। इसी कारण उसकी प्रवृत्ति बौद्ध धर्म की ओर हो गई। इसी समय एक बौद्ध भिक्षु उपगुप्त से अशोक की भेंट हुई। उपगुप्त की बातें सुनकर अशोक पर और भी अधिक प्रभाव पड़ा। सम्राट अशोक ने एक लेख में स्वयं लिखा है कि दो वर्षों तक उसने केवल एक उपासक की भाँति जीवन बिताया और धर्म के कार्यों में अधिक उत्साह नहीं दिखाया। उसके बाद ही वह बौद्ध संघ में सम्मिलित हुआ। कुछ विद्वानों का मत है कि अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी नहीं था पर उन्हीं का मत यह भी है कि वह उत्साही बौद्ध था। अशोक ने स्वयं को बुद्ध, संघ तथा धर्म का भक्त कहा है। अशोक ने बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थानों की यात्रा की। उसने यज्ञ व बलि को बंद करवाया तथा धर्म के प्रचारार्थ स्तूप व स्तम्भ बनवाये व धर्म की शिक्षाएं उन पर खुदवाई। उसने बौद्ध धर्म के अनुयायियों की एक सभा भी बुलाई थी। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि अशोक बौद्ध धर्म का पक्का अनुयायी था।
बौद्ध धर्म का अनुयायी बनने के बाद अशोक ने अपना सारा समय धन और राज्य साधन बौद्ध धर्म के प्रचार लगा दिया। देश में ही नहीं विदेशों में भी उसने इस धर्म का प्रचार किया। आज बौद्ध धर्म भारत से लगभग समाप्त सा हो गया है, पर दक्षिण – पूर्वी एशिया में इस धर्म के अनुयायियों की संख्या काफी है। अशोक एक महान बौद्ध सम्राट था। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये उसने निम्नलिखित उपाय किये-
तीर्थयात्रा- अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद सभी बौद्ध तीर्थों की यात्रायें करनी आरंभ की। सबसे पहले उसने गया की यात्रा की, जहाँ भगवान् बुद्ध को सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ था। वहाँ उसने बोधिवृक्ष के सामने श्रद्धांजलि अर्पित की। उसके बाद उसने बुद्ध के जन्म स्थान “लुम्बिनी वन“ की यात्रा की। वह सारनाथ, कपिल वस्तु तथा कुशीनगर भी गया। अपनी यात्रा की। बाद में उसने इन स्थानों पर स्मारक बनवाए तथा इन यात्राओं से जनता का ध्यान बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट किया। इन यात्राओं के दौरान वह स्थान – स्थान पर धार्मिक सभाएँ भी कराता था, जिसमें धर्म का विस्तार होता था। इन चर्चाओं में जनता को बौद्ध धर्म की अनेक शिक्षाओं का पता लगता था।
अहिंसा – अहिंसा पर अशोक ने बहुत जोर दिया। उसने अपने व्यक्तिगत तथा राज्य के धार्मिक सिद्धांत के रूप में बौद्ध धर्म को अपना लिया। उसने शिकार खेलना बंद कर दिया। एक आदेश द्वारा उसने वर्ष के मुख्य मुख्य 56 दिनों के लिये पशुवध बंद करवा दिया। अहिंसा के नियमों का समाज में अच्छी तरह पालन हो, इसकी जाँच के लिये उसने विशेष पदाधिकारी नियुक्त कर दिये।
अशोक के धर्म महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की। इन धर्म महामात्रों को स्थान स्थान पर घूमना, पड़ता था और उन्हें यह देखना पड़ता था कि जनता अपने व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध धर्म के नियमों का पालन करती है या नहीं। इसके अलावा महामात्र उन्हीं लोगों को बनाया जाता था जो बौद्ध धर्म के अनुयायी होते थे। और उनसे आशा की जाती थी कि देश का भ्रमण करते समय वे बौद्ध धर्म का प्रचार भी करें। अतः जनता धर्म का पालन भी करने लगी और बौद्ध ऽ धर्म का प्रचार भी बढ़ने लगा ● संघों और मठों का निर्माणबौद्ध भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के रहने के लिये अशोक ने बहुत से संघ तथा विहार बनवाये। वे मठ-विहार बौद्ध धर्म के प्रचारकों के केंद्र थे। इनको चलाने के लिये सारा खर्च राज्य की ओर से दिया जाता था। बौद्ध धर्म के विद्वानों को भी राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। इसके अतिरिक्त अशोक ने बहुत से स्तूप भी बनवाये, जिनमें सांची का स्तूप व आहूत का स्तूप बहुत प्रसिद्ध है।
विदेशों में प्रचार अशोक ने केवल देश 7 में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बौद्ध धर्म को फैलाने का प्रयत्न किया। इस कार्य के लिये उसने बौद्ध धर्म के बहुत से प्रचारक बाहर के देशों को भेजे। इन प्रचारको को बाहर के देशों में बड़ी सफलता मिली। अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा को भी धर्म के प्रचार के लिये ऽलंका भेजा। लंका का राजा तिस्स तथा उसके साथ उसके बहुत से दरबारियों व साधारण जनता ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। अशोक ने सीरिया, मिस्त्र मकदूनिया और एपीरस को भी धर्म प्रचारक भेजे। हिमालय प्रदेश में मज्झिम नाम का एक भिक्षु प्रचार के लिये भेजा गया। वहाँ उसने बहुत से लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया।
बौद्ध धर्म सम्मेलन बौद्धमत के अनुयायियों में कुछ मतभेद पैदा हो गये थे। उनको दूर करने के लिये अशोक ने अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में एक बौद्ध सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन अशोक के शासन के सत्रहवें वर्ष के पश्चात् अर्थात 252 ई. पू. के लगभग बुलाया गया था। इस सम्मेलन की सभापति भिक्षु उपगुप्त थे। कुछ विद्वान का कहना है कि इस सम्मेलन के सभापति भिक्षु भोग्गलिपुत्र तिस्स थे। इस सम्मेलन से बौद्ध धर्म के अग्रेतर प्रचार में बड़ी सहायता मिली। इस समय बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को “कथावस्तु“ नामक ग्रंथ में संकलित किया गया।
व्यक्तिगत आदर्श अशोक जानता था कि दूसरों को किसी बात की शिक्षा देने के पहले स्वयं उसका पालन करना चाहिये, तभी दूसरों पर उस शिक्षा का असर पड़ता है। अतः सबसे पहले जनता के सामने उसने अपना व्यक्तिगत आदर्श पेश किया। अशोक ने माँस खाना, शिकार खेलना, नाच देखना आदि सब छोड़ दिया। वह स्वयं भिक्षु बन गया था और धर्म के नियमों को जीवन में मानता था। इसका जनता पर बड़ा असर पड़ा। अहिंसा के सिद्धांत को अपनाकर उसने घोषणा की कि अब (कलिंग के बाद वह अन्य कोई युद्ध नहीं करेगा। कहते है यथा राजा तथा प्रजा अर्थात जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा भी हो जाती है। इस प्रकार अशोक ने जनता के सामने अपना व्यक्तिगत आदर्श रखा जिससे जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा।
बौद्ध धर्म को राज्य धर्म बनाना अशोक के जीवन में बौद्ध धर्म इतना घुलमिल गया था कि उसने राज्य धर्म का स्थान भी बौद्ध धर्म को दे दिया। राज्य धर्म बन जाने से जनता बौद्ध धर्म के प्रति बहुत आकृष्ट हुई। उन दिनों राजा की स्थिति को देखते हुये यह बहुत स्वाभाविक ही था कि राज्य की जनता उसी धर्म में श्रद्धा रखें, जिसमें उसका राजा रखता हो। इस प्रकार बौद्ध धर्म का अधिकाधिक प्रचार हुआ।
अशोक का धर्म रक्षक बन जाना शिलालेखों से यह भी पता लगता है कि ऽ अशोक बौद्ध धर्म का रक्षक बन गया था। भबू शिलालेख से पता लगता है कि उसने भिक्षुओं के आचरण के लिये कुछ सिद्धांत नियत किये थे। और उन सिद्धांतों का पालन न करने वालों के लिये दण्ड भी नियत किये थे। इस प्रकार धर्म को समुचित ढंग से उन्नत करना अशोक का एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य था।
सरकारी प्रयत्न अशोक ने अपने राज्य के सभी पदाधिकारियों को आदेश द रखा था कि वे धर्म के प्रचार के लिये प्रयत्न करें। उनको आदेश था कि अपना आचरण ठीक रखें और यह भी ध्यात रखें कि जनता आचरण के नियमों कापालन करें। अशोक ने राजधानीवाले ऐसे सभी त्यौहार व समारोह बंद कर दिये, जिसमें पशुओं की लड़ाई होती . थी, बलि दी जाती थी या शराब पी जाती. थी। इनके स्थान पर उसने धार्मिक त्यौहार व समारोह शुरु किये।
सड़कें, विश्रामालय व अस्पताल आदि बनवाना धर्म प्रचारकों की सुविधा के लिये अशोक ने सड़के बनवाई, उन घर छायादार पेड़ लगवाये और कुएँ खुदवाये। सड़कों के किनारे थोड़ी थोड़ी दूर पर, विश्रामालय बनवाये। जनता के लिये अस्पताल बनवाये गये, जिनमें लोगों को मुफ्त दवा मिलती थी। अशोक ने सड़कों के किनारे बड़ी बड़ी शिलाएँ लगवाई, जिन पर उसने बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को अंकित करवाया ताकि आने जाने वाले सभी लोग इन शिक्षाओं को आसानी से पढ़ सकें। इस प्रकार बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिये अशोक ने बहुत महान कार्य किया। इसी कारण बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक का स्थान सबसे ऊंचा है। महान अशोक सम्राट नहीं वरन् अशोक जनता का सेवक था।
वह अपने सुख के सामने जनता के सुख की अधिक चिंता करता था। उसके एक लेख में लिखा है- “सभी जन मेरी संतान हैं और जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिये इस लोक और परलोक में सभी प्रकार की सुख समृद्धि की कामना करता हूँ। उसी प्रकार मैं सारी प्रजा के लिये सुख समृद्धि की कामना कहता हूँ एक अन्य लेख में यह विवरण मिलता है? “हर समय, चाहे मैं भोजन करता होऊ, महल में, या धार्मिक स्थान में होऊ, सभी स्थानों पर अधिकारी मुझे जनता के मामलों की सूचना देते रहें।“ अशोक की. धारणा थी कि प्रजा के कल्याण से बढ़कर, सम्राट के लिये और कोई काम नहीं है। प्रजा के कल्याण का कार्य करने में वह कभी भी थकान नहीं महसूस करता था।
– सुरेश सिंह बैस“शाश्वत’
More Stories
21 दिसंबर: विश्व साड़ी दिवस के अवसर पर विशेष – साड़ी: भारतीयता और परंपरा का विश्व प्रिय पोशाक
“राम मंदिर की प्रतीक्षारत अलौकिक दिवाली”
“गजेंद्र मोक्ष और गृहस्थ जीवन”
“देवी में निहित श्रृद्धा”
योग द्वारा हृदय रोग से मुक्ति
पोलियो और पोस्ट पोलियो सिंड्रोम: एक दर्दनाक स्थिति