
स्मिता सिंह/- वह 31 साल की थी। वर्षों की कठिनाइयों और संघर्षों के बाद, आखिरकार उसका सपना साकार होने जा रहा था। वह एक डॉक्टर के रूप में अपने करियर की शुरुआत करने वाली थी, जो उसका बचपन का सपना था। उसने किशोरावस्था में यह सपना देखा था—सफेद कोट पहनकर अस्पताल में काम करने का। हर दिन जब वह अपने सफेद कोट को पहनती, तो उसे गर्व महसूस होता, जैसे वह अपने सपनों के और करीब पहुंच रही हो।
लेकिन किसे पता था कि उसी सफेद कोट में, उसी अस्पताल में, वह अपनी आखिरी साँसे लेगी? उसने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसा आएगा जब वही सफेद कोट उसके टूटते सपनों का गवाह बनेगा। उस रात जब वह अस्पताल के सेमिनार हॉल में सोने के लिए गई, तो वह नहीं जानती थी कि उसका सपना उसी रात बिखर जाएगा।
उसे क्या पता था कि उसकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना, जिसे उसने अपने खून-पसीने से सींचा था, एक ही रात में टूट जाएगा। सफेद कोट में उसने जिस दर्द और पीड़ा को सहा, वह अकल्पनीय है। उस रात उसकी पूरी दुनिया उजड़ गई, उसके सारे सपने बिखर गए।
सफेद कोट पहनकर उसने जो सम्मान, जो पहचान हासिल की थी, वही सफेद कोट उसकी असहायता और टूटे सपनों का प्रतीक बन गया। आज वह सफेद कोट उसकी मौत की गवाही दे रहा है, उस निर्दयी रात की गवाही दे रहा है, जिसने एक डॉक्टर के पूरे जीवन को निगल लिया।
क्या हमारा समाज कभी समझ पाएगा कि उस सफेद कोट के पीछे कितनी मेहनत, कितनी उम्मीदें और कितने सपने छिपे थे? क्या हम कभी समझ पाएंगे कि उस रात सिर्फ एक डॉक्टर की जान नहीं गई, बल्कि उसके सारे सपने, उसकी सारी मेहनत भी उसी के साथ खत्म हो गई?
इस घटना ने हम सबको सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर कब तक हमारी बेटियाँ ऐसे ही अपने सपनों की कीमत चुकाती रहेंगी? कब तक हम इस बर्बरता का शिकार होते रहेंगे?
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