
नई दिल्ली/- जलवायु परिवर्तन का असर अब धीरे-धीरे विश्व पटल पर दिखने लगा है। प्रदुषण व कार्बन उत्सर्जन के कारण विश्व तापमान में हो रही अप्रत्याशित वृद्धि ने मौसम चक्र को पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। जिसकारण जहां पहले सुखा पड़ता था अब वहां बाढ़ आ रही है और जहां बारिश होती थी अब वहां सूखा पड़ा रहा। ऐसे अनेकों उदाहरण है जिसन से यह साफ हो जाता है कि अब प्रकृति करवट ले रही है। जिसके चलते संभावना व्यक्त की जा रही है कि भारत में 2050 तक मुंबई, कोलकाता व चेन्नई जैसे महानगर पूरी तरह से डूब जायेंगे। हाल ही में इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। अब वहां की सरकार नई जगह पर राजधानी बसा रही है। दिल्ली के भी 100 वर्ग किमी के इलाके में हलचल है।
बेंगलुरू, मुंबई, सूरत, चेन्नई और कोलकाता के कईं हिस्से साल 2050 तक या तो समुद्र में डूब जाएंगें या फिर बार-बारु आने वाली बाढ़ से तबाह हो जाएंगें। ऐसा कार्बन उत्सर्जन के साथ-साथ समुद्र के बढ़ते जल स्तर की वजह से होगा। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 3.1 करोड़ लोग तटीय क्षेत्रों में रहते हैं और हर साल बाढ़ के जोखिम का सामना करते हैं। साल 2050 तक यह संख्या बढ़ कर 3.5 करोड़ और सदी के अंत तक 5.1 करोड़ पहुंच सकती है। ये अनुमान, अत्यधिक विपरीत परिस्थितियों पर आधारित हैं, अगर दुनियाभर में कार्बन उत्सर्जन का बढ़ना इसी रफ़्तार से जारी रहता है। फिलहाल, दुनिया भर में 25 करोड़ लोग हर साल आने वाली तटीय बाढ़ के जोखिम वाले क्षेत्रों में रहते हैं।
अध्ययन करने वाली संस्था क्लाइमेट सेंट्रल के मुख्य वैज्ञानिक और सीईओ बेंजामिन एच.स्ट्रास कहते हैं, इस शोध से पता चलता है कि जितना हम सोच रहे थे, ख़तरेउससे कहीं ज़्यादा बड़े हैं।
मुख्य निष्कर्ष
यह अध्ययन क्लाइमेट सेंट्रल के वैज्ञानिक स्कॉट ए.कल्प और बेंजामिन एच.स्ट्रास के नेतृत्व में किया गया था। क्लाइमेट सेंट्रल जलवायु में आ रहे विपरीत बदलावों पर काम करने वाले वैज्ञानिकों, पत्रकारों और शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र संगठन है। साल 2000 में आये नासा (अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी) के एलेवेशन डेटासेट के इर्दगिर्द क्लाइमेट सेंट्र ने ये अध्ययन किया है। नासा के अध्ययन में रह गई कुछ ख़ामियों को कम करने के लिए कल्प और स्ट्रास ने आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस का सहारा लिया। जिसके बाद नये अनुमान सामने आए। इन नये अनुमानों के मुताबिक़ पिछले अनुमानों के मुक़ाबले, दुनियाभर में तीन गुना समुद्र तट समुद्र के पानी की चपेट में है।
औद्योगिक क्रांति से पहले (जिसे आमतौर पर वर्ष 1850 का काल माना जाता है) की तुलना में 20वीं शताब्दी में दुनियाभर में समुद्र का स्तर 11 से 16 सेंटीमीटर तक बढ़ गया है। अगर दुनियाभर में हर साल होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भारी कटौती भी कर दी जाए तो भी साल 2050 तक समुद्र का जल स्तर आधा मीटर तक बढ़ जाएगा। सबसे विपरीत परिस्थितियों में समुद्र का स्तर इस सदी के अंत तक 2 मीटर तक बढ़ जाएगा।
अध्ययन के प्रमुख लेखक, कल्प ने स्काइप के ज़रिये इंडियास्पेंड के साथ बात करते हुए कहा, ष्हमारे विश्लेषण में उम्मीद की किरण यह है कि हमने अगर पहले से सोचे गए समुद्र के जल स्तर के तीन गुना ज्यादा होने का अनुमान लगाया है तो इसका मतलब यह भी है कि कार्बन उत्सर्जन को तेजी से कम करने के फ़ायदे भी पहले के अनुमान से तीन गुना अधिक हैं।
निचले इलाकों में रहने वाले 70 प्रतिशतः लोग आठ एशियाई देशों से हैं, और ये देश हैं- चीन, भारत, बांग्लादेश, वियतनाम, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलीपींस और जापान।
सबसे ज्यादा संकटग्रस्त
कार्बन उत्सर्जन की वजह से दुनियाभर का तापमान बढ़ रहा है। जो ध्रुवों पर बर्फ को पिघला रहा है, जिससे दुनियाभर में समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। फ़िलहाल, चीन कार्बन का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इसके बाद अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और फिर भारत का नम्बर है। इस संबंध में इंडियास्पेंड की सितंबर 2019 की रिपोर्ट में बताया जा चुका है। अगर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को देखा जाए तो कनाडा का स्थान सबसे ऊपर है। इसके बाद अमेरिका, रूस और जापान का स्थान है। दुनिया में भारत सबसे कम प्रति व्यक्ति कार्बन का उत्सर्जन करता है, और नये अध्ययनों के आधार पर हम कह सकते हैं कि जिस तेज़ी से दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, उसे देखते हुए भारत में बाढ़, बे-मौसम बरसात और तूफ़ानों में बढ़ोत्तरी हो सकती है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने वर्ष 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 45ः की कटौती के लिए कहा है। दुनिया के तापमान की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने के लिए, जंगल, महासागर और ज़मीन की ऊपरी परत के इस्तेमाल से, बाकी के उत्सर्जन में कटौती कर कार्बन उत्सर्जन को साल 2050 तक ‘नेट ज़ीरो’ तक लाया जाए।
समुद्र के बढ़ते जल स्तर से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले कई द्वीपीय राष्ट्रों में कार्बन का उत्सर्जन नहीं के बराबर है और वे पहले से ही कार्बन न्यूट्रल (यानी कार्बन का जितना उत्सर्जन हो रहा है, उतना ही उसे सोख लिया जाए) बनने के अपने रास्ते पर हैं। कल्प कहते हैं, “बड़ी मात्रा में पहले से ही वायुमंडल में कार्बन छोड़ा जा चुका है जिसका मतलब है कि अगर हम आज से कार्बन न्यूट्रल बन भी जाते हैं तो भी तटीय आबादी के लिए काफी ख़तरा है।”
दुनिया के तापमान में वृद्धि ने बर्फों के पिघलने की गति निर्धारित कर दी है जो आगे भी कुछ समय के लिए जारी रहेगी, भले ही कार्बन उत्सर्जन को हम आज भारी मात्रा में घटा दें, तब भी। जब एक बर्फ के टुकड़े को एक मेज़ पर रखा जाता है तो यह तुरंत पिघलता नहीं है, इसमें कुछ समय लगता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आर्कटिक और अंटार्कटिक क्षेत्र के ग्लेशियरों के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। स्ट्रास ने कहा, “दुर्भाग्य से ग्लेशियर और बर्फ़ की चादर कहे जाने वाले इलाकों पर अभी भी उस बढ़ते तापमान का असर नहीं पड़ा है जो हमारी वजह से हुआ है”
स्ट्रास ने कहा, ष्हम आज जो उत्सर्जन कर रहे हैं, उसमें आज और साल 2050 तक कोई ख़ास फ़र्क (समुद्र के जल स्तर पर) नहीं पड़ेगा। हो, लेकिन इस सदी के अंत में और उसके बाद बहुत ज्यादा फर्क पडेगा।ष् उन्होंने कहा कि लगातार बढ़ते प्रदूषण से हम सबसे खराब स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं।
इस अध्ययन में भारत में अनियमित मानसून की वजह से आने वाली बाढ़ को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बाढ़ से प्रभावित आबादी में बढ़ोत्तरी कर सकता है।
जलवायु परिवर्तन के शरणार्थी
भारत की तटीय इलाक़ा 7,500 किलोमीटर लंबा है और समुद्र के स्तर में वृद्धि से जोखिम में, चीन के बाद, दूसरी सबसे बड़ी तटीय आबादी भारत में ही है। चीन में ये आबादी 8.1 करोड़ है। टीईआरआई स्कूल ऑफ एडवांस स्टडीज के रीजनल वॉटर स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर अंजल प्रकाश कहते हैं, “महासागरों के गर्म होने के प्रभाव से चक्रवाती तूफ़ान जैसी घटनाएं और बढ़ेंगी और आने वाले दशकों में ये और ख़तरनाक हो जाएंगीं।”
प्रकाश, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इंटर गवर्न्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की हालिया रिपोर्ट कोर्डिनेटिंग लीड ऑथर हैं। प्रकाश कहते हैं, भारतीय मानसून के पैटर्न में बदलाव का असर तटीय इलाक़ों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी पर भी पड़ेगा।
इन सभी कारणों से पलायन का बढ़ना भी तय है।
समुद्र के खारे पानी का ज़मीन पर आने का मतलब है कि ज़मीन खेती के लायक नहीं रहेगी। इससे देश के अंदर ही पलायन बढ़ेगा। जैसा कि इंडियास्पेंड ने ओडिशा और पश्चिम बंगाल से रिपोर्ट किया था। साक्ष्य बताते हैं कि बांग्लादेश का बड़ा हिस्सा अधिक खारा होने या जलमग्न होने के कगार पर है और इससे अंतर्राष्ट्रीय पलायन भी बढ़ने के आसार है।
लेकिन दुनिया भर में, बहुत से लोग अपने पुरानी जगहों पर ही रहना पसंद करते हैं। समुद्र के जल स्तर में वृद्धि वाले इलाकों में सरकारें तटों पर दीवारों का निर्माण करा रही है, जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ने की स्थिति में भी लोग अपने इलाक़ों में रह सकें।
राहत की रणनीति
दुनियाभर में, लगभग 11 करोड़ लोग पहले से ही हाई-टाइड स्तर से नीचे वाले क्षेत्रों में रह रहे हैं। भारत में ऐसे लोगों की संख्या 1.7 करोड़ है।
क्लाइमेट सेंट्रल के स्ट्रास कहते हैं, “कई स्थानों पर समुद्र तटों पर दीवारें हैं, जिससे लोग उसके आसपास रह सकते हैं। लेकिन जब बारिश होती है तो वहां से पानी को बाहर निकलाने में मुश्किलें होती है।ष्
वैज्ञानिकों का कहना है कि हाई-टाइड लाइन के नीचे के इलाकों में पहले से रह रहे लोगों की संख्या यह बताती है कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों का बचाव संभव है, लेकिन काफ़ी महंगा सौदा है।
स्ट्रास कहते हैं, “राहत से सम्बंधित रणनीतियों में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अगर समुद्र का जल स्तर तेज़ी बढ़ा तो आप कितनी तेज़ी से राहत का काम शुरु कर सकते हैं और कितना ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार हैं।
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