मन की चुप्प और छलावे की सच्चाई पर एक तीक्ष्ण कविता

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November 9, 2025

हर ख़बर पर हमारी पकड़

मन की चुप्प और छलावे की सच्चाई पर एक तीक्ष्ण कविता

मन में मंदिर मन में मस्जिद,मन में है काशी और काबा
मृगमरिचिका है बाकी सब,शेष बचा बस ढोंग छलावा
मौला पंडित पादरी ग्रंथी सब ज्ञानी बनते फिरते पर
ख़ुद को सब ईश्वर कहते पर सबका दावा झूठा दावा
कहते खुद को पुर्ण हैं लेकिन, खलीपन से भरे हुये है
सबके दर्द चुराने वाले स्वयं चुभन से भरे हुये है

इस रास्ते से कोई पथिक अब भूले से ना गुजर सकेगा
इस सराय में कोई मुसाफिर आकर अब ना ठहर सकेगा
टांग दिया है दरवाजे पर  ‘परितक्त्य’ लिखबा कर मैंने
धवस्त किले पर दिल के अब ना कोई परचम फहर सकेगा
हम बंजारों को महलों के रंग ढंग से क्या लेना जब
अपने हिस्से की झोपडियाँ, रहन सहन से भरे हुये हैं
सबके दर्द चुराने वाले स्वयं चुभन से भरे हुये हैं

पेट से खाली हम है बेशक़ लेकिन मन से भरे हुये हैं
इतना अपनापन ग़म से कि अपनेपन से भरे हुए हैं
खाक़ है मिट्टी, धन और दौलत, प्यार की दौलत सब पर भारी
दिल से कितने रिक्त है जो की केवल धन से भरे हुये है
फालदारों को पत्थर देना दुनियाँ का दस्तूर रहा है
सबके प्राण बचाने वाले स्वयं कफ़न से भरे हुये हैं

दिल का बासिन्दा ही कोई जब दिल से छल कर जाता है
सच कहता  हूँ ऐसे में फिर दिल पीड़ा से भर जाता है
कहो तुम्हारे दर से उठकर कब कोई अपने घर जाता है
तेरे हाथ से जो छूटा वो तड़प तड़प के मर जाता हैं
मंजिल आँख के आगे है और कदम थकन से भरे हुये है
सबके दर्द चुराने वाले स्वयं चुभन से भरे हुये हैं 

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