नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/द्वारका/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- इस्रायल और यूएई के बीच इस समझौते से डोनाल्ड ट्रंप काफी प्रसन्न हैं। इसे इस साल नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले उनकी विदेश नीति की जीत की तरह देखा जा रहा है। कोरोना को लेकर अपनी साख को काफी नुकसान पहुंचा चुके डोनाल्ड ट्रंप इसे चुनाव में जरूर भुनाने की कोशिश करेंगे।
यहां खास बात यह है कि कोरोना वायरस महामारी के नियंत्रण को लेकर ट्रंप और नेतन्याहू दोनों की ही आलोचना हो रही है। नेतन्याहू पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। ऐसे में दोनों ही नेता इस समझौते के सहारे अपनी राजनीतिक नैया किनारे लगाने की कोशिश करेंगे। वहीं यह समझौता फलस्तीनियों के मु्द्दे को हल करने की व्यापक शांति योजना से कहीं दूर है। नेतन्याहू को जहां इससे आम चुनाव में फायदा मिल सकता है वहीं, यूएई के लिए इसमें तात्कालिक लाभ नहीं दिख रहे हैं लेकिन अमेरिका के साथ उसके संबंध मजबूत होंगे और ईरान से भी उसे विभिन्न सहयोग प्राप्त होंगे।
अमेरिका में विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी कोरोना तथा एशियन व अफ्रीकन समुदाय को लेकर डोनाल्ड ट्रंप के समक्ष काफी संकट खड़ा कर चुकी है। जिसे देखते हुए अब डोनाल्ड ट्रंप भी अपनी साख बनाये रखने और चुनावों में जीत दर्ज करने के लिए वैश्विक राजनीति पर खेल खेल रहे है। इस समझौते के बाद डोनाल्ड ट्रंप व नेतन्याहू का वैश्विक स्तर पर प्रभाव बढ़ा है।
इस समझौते को लेकर अभी से नेतन्याहू काफी उत्साह में दिख रहे है और यूएई के साथ काम करने की दिल से इच्छा जाहिर कर चुके है। उन्होने इस लेकर ऊर्जा, जल और पर्यावरण संरक्षण समेत कई अन्य क्षेत्रों में अब संयुक्त अरब अमीरात के साथ मिलकर काम करने की बात कही है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि इस्रायल दुनिया भर के लिए संकट का सबब बनी वैश्विक महामारी कोरोना वायरस की वैक्सीन विकसित करने में भी यूएई का सहयोग करेगा। जानकारी के अनुसार आने वाले समय में दोनों देशों के बीच निवेश, पर्यटन, सीधी उड़ानों, सुरक्षा, दूरसंचार, प्रौद्योगिकी, ऊर्जा, स्वास्थ्य, संस्कृति, पर्यावरण, पारस्परिक दूतावासों की स्थापना और अन्य क्षेत्रों में सहयोग स्थापित करने के लिए द्विपक्षीय सौदों पर हस्ताक्षर हो सकते हैं। ये कार्यक्रम अमरीका में आयोजित हो सकते हैं।
हालांकि अभी भी एक बड़ा सवाल यह है कि क्या इस समझौते के बाद बाकी खाड़ी देश भी इस तरह का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं। यह भी अहम है कि इसमें क्या नहीं है। इस्रायल और संयुक्त अरब अमीरात को भले ही इसमें अभी या देर में लाभ मिलने की संभावना हो लेकिन फलस्तीनियों को एक बार फिर हाशिये पर रख दिया गया है। इनमें 86 फीसदी यानी करीब 25 लाख फलस्तीनी हैं और 14 फीसदी यानी चार लाख 27 हजार 800 इस्रायली हैं। इनमें से अधिकतर इस्रायली बस्तियां 70, 80 और 90 के दशक में बसाई गई थीं। फलस्तीनी अपने कब्जे वाले वेस्ट बैंक, पूर्वी येरुशलम और गाजा पट्टी को मिला कर अपना एक देश बनाना चाहते हैं। जिसपर फिलहाल काम रोक दिया गया है।
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