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    किसान आंदोलन- क्यों जरूरी है फसल खरीद की गारंटी- अरविंद कुमार सिंह

    नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/द्वारका/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और एमएसपी पर खरीद की गारंटी की मांग को लेकर एक महीने से देश भर में चर्चा में है। किसानों की एमएसपी की मांग को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिलते देख भारत सरकार के कई मंत्री एक स्वर में बोल रहे हैं। उनका कहना है कि एमएसपी पर खरीद जारी रहेगी, यह बात सरकार किसान संगठनों को लिख कर देने को तैयार है। एमएसपी पर बंपर खरीद का दावा भी किया जा रहा है। लेकिन इसके बावजूद किसान चाहते हैं कि सरकार ऐसा कानून बनाए जिससे कोई भी उनके उत्पाद को एमएसपी से नीचे न खरीद सके। उसके लिए दंड की व्यवस्था हो। अभी एमएसपी पर खरीद दो दर्जन फसलों तक सीमित है। लेकिन गेहूं और धान को छोड़ दें तो अधिकतर फसलों की खरीद दयनीय दशा में है।
    ऐसा नहीं है कि मौजूदा किसान आंदोंलन में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी पर खरीद की चर्चा चल रही है। बीती एक सदी से किसान आंदोलनों के केंद्र में कृषि मूल्य नीति या वाजिब दाम शामिल रहा है। किसान अरसे से मांग करते आ रहे हैं कि कृषि उत्पादों के मूल्य 1967 को आधार वर्ष तय करके घोषित किए जायें।
    अस्सी के दशक के बाद तो कोई ऐसा किसान आंदोलन नहीं हुआ जिसमें फसलों का वाजिब दाम न शामिल रहा हो। खुद संसद, संसदीय समितियों और विधान सभाओं में इस पर व्यापक चर्चाएं हुई हैं। एक दौर में जबकि एमएसपी की व्यवस्था की गयी थी वह ठीक ठाक थी। लेकिन उत्पादन बढ़ने के साथ अन्य इलाको के किसानों की भी इसके दायरे में आने की चाहत बढ़ी है। किसान संगठन एमएसपी के पैमाने और सरकारी खरीद दोनों से असंतुष्ट रहे हैं। वहीं सरकार भी जानती है कि किसानों को वाजिब दाम मिलने लगे तो उनकी अधिकतर समस्याओं का हल निकल जाएगा। उनका उत्पाद सरकार खरीदे या निजी क्षेत्र लेकिन सही दाम मिलेगा तो आय बेहतर होगी, जिसका उनके जीवन स्तर पर असर पड़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था पर भी।
    भारत के किसानों ने कठिन चुनौतियों और अपनी मेहनत से कम उत्पादकता के बावजूद भारत को चीन के बाद सबसे बडा फल और सब्जी उत्पादक बना दिया है। चीन और अमेरिका के बाद सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश भारत ही है। पांच दशको में हमारा गेहूं उत्पादन 9 गुना और धान उत्पादन पांच गुणा से ज्यादा बढ़ा है वहीं खेती की लागत भी इसी अनुपात में लगातार बढी है, लेकिन उनके उत्पादों के दाम नहीं।
    कारखाने वाले अधिक उत्पादन करके खुश होती है, जबकि किसान चिंतित क्योंकि जैसे ही उसकी फसल कटने वाली होती है, दाम गिरने लगते हैं। मौजूदा तीन कृषि कानूनो के बाद अगर एमएसपी की गारंटी बिना किसानों को बाजार में खड़ा कर दिया गया तो बड़े कारोबारी किसानों और उपभोक्ताओं की क्या दशा करेंगे, यह बात कमसे कम किसान समझ गया है। इसी नाते किसान संगठन एमएसपी पर खरीद की गारंटी चाहते हैं। किसान जिन वस्तुओं को खरीदता है वह अगर एमआरपी के दायरे में है और सफलता से देश की बाजार में स्वीकार्य है तो एमएसपी के लिए कोई ठोस व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती है।
    किसानों का आंदोलन दिल्ली पहुंचने के पहले संसद के मानसून सत्र में भी इस विषय पर व्यापक चर्चा हुई थी। कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने तब दावा किया था कि अब किसानों को उपज बेचने के प्रतिबंधों से मुक्ति के साथ अधिक विकल्प मिलेगा। कृषि मंडियों के बाहर एमएसपी से ऊंचे दामों पर खरीद होगी। सांसदों ने मांग की थी कि इसकी गारंटी विधेयक में दी जाये कि जो कारोबारी मंडियों से बाहर एमएसपी से कम दाम पर खरीदेगा वह दंडित होगा। लेकिन सरकार ने इस सवाल को नजरंदाज किया। तीनों विधेयको को संसदीय समितियों को भेजने की मांग भी सरकार ने नहीं मांगी। इससे किसानों के मन में संदेह का और बीजारोपण हुआ। हाल में हरियाणा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने राज्यों में अनाज बिक्री के लिए आने वाले दूसरे राज्यों के किसानों को रोकने और दंडित करने की बात कर सुर्खियों में आए। अगर किसान अपनी मर्जी का मालिक है तो ऐसे बंधन क्यों।
    एमएसपी पर खरीद में कई राज्यों में दिक्कतें हैं। इसी साल के आरंभ में आंध्र प्रदेश में धान किसानों की समस्याओं को लेकर उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडु को कृषि मंत्री और खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री से हस्तक्षेप करना पड़ा था। बाद में 2 मार्च 2020 को खाद्य मंत्रालय और एफसीआई के अधिकारियों ने उपराष्ट्रपति से मुलाकात कर धान किसानों से समय पर खरीदारी न होने और समय पर भुगतान के मसले पर सफाई दी और समाधान के लिए जल्दख से जल्द कार्रवाई करने और राज्य सरकार को बकाया राशि का तुरन्तए भुगतान करने की बात कही। कोरोना संकट में खाद्य सुरक्षा के हित में किसानों ने खरीफ बुवाई का क्षेत्र 316 लाख हेक्टेयर तक पहुंचा दिया जो पिछले पांच सालों के दौरान औसतन 187 लाख हेक्टेयर था। लेकिन खरीफ फसलों की एमएसपी में आशाजनक बढोत्तरी नहीं की गयी। भारतीय किसान यूनियन ने एमएसपी घोषणा के साथ ही यह कहते हुए विरोध जताया था कि पिछले पांच वर्षों की यह सबसे कम मूल्य वृद्धि रही। धान का समर्थन मूल्य 2016-17 में 4.3 फीसदी, 2017-18 में 5.4 फीसदी, 2018-19 में 12.9 फीसदी और 2019-20 में 3.71 फीसदी बढ़ा था जबकि 2020-21 में सबसे कम 2.92 फीसदी बढ़ा। उसी दौरान भाकियू ने मांग की थी कि एमएसपी पर खरीद के लिए कानून बनाया जाये।
    कृषि मूल्य नीति को लेकर तमाम सवाल हैं और मंडियो को लेकर भी। किसानों को आम शिकायत है कि उनको वाजिब दाम नहीं मिलता। मोदी सरकार ने स्वामिनाथन आयोग की सिफारिश के तहत एमएसपी तय करने का वादा किया था। लेकिन इस वायदे को आधे अधूरे तरीके से मान कर आंकड़ों के जाल में उलझा दिया गया। तमाम कमजोरियों और विसंगतियों के बाद भी सरकारी मंडियां ही किसानों के हितों की बाजार की तुलना में अधिक रक्षा करती हैं। किसान पर बाजार कभी कभार ही उदार होता है। लेकिन अगर यह व्यवस्था अर्थहीन हो गयीं तो उत्तर भारत का किसान अपना गेहूं या चावल हैदराबाद या भुवनेश्वर के बाजार में नहीं बेचेगा। यह काम बड़ा कारोबारी ही करेगा।

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