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    गलत भी आ सकती है कोरोना टेस्ट की रिपोर्ट, शोध में हुआ खुलासा

    नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/द्वारका/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- वैज्ञानिकों का कहना है कि मानव शरीर में कोरोना वायरस का टेस्ट करने का जो सबसे महत्वपूर्ण तरीका है वो इतना संवेदनशील है कि इसमें पहले हुए संक्रमण के मृत वायरस या उनके टुकड़े भी मिल सकते हैं। वो मानते हैं कि कोरोना वायरस से व्यक्ति करीब एक सप्ताह तक संक्रमित रहता है, लेकिन इसके बाद भी कई सप्ताह तक उसका कोरोना टेस्ट पॉजिटिव आ सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इसका कारण ये भी हो सकता है कि कोरोना महामारी के पैमाने पर जिन आंकड़ों की बात हो रही है वो अनुमान से अधिक हों। हालांकि कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि कोरोना की जांच के लिए एक भरोसेमंद जांच का तरीका कैसे निकाला जाए जिसमें संक्रमण का हर मामला दर्ज हो सके, ये अब तक तय नहीं हो सका है।
    इस शोध में शामिल एक शोधकर्ता प्रोफेसर कार्ल हेनेगन कहते हैं टेस्ट के नए तरीके में जोर वायरस के मिलने या न मिलने पर न होकर एक कट-ऑफ पॉइंट पर यानी एक निश्चित बिंदु पर होना चाहिए जो ये इशारा करे कि उस मात्रा में कम वायरस के होने से टेस्ट का नतीजा नेगेटिव आ सकता है। वो मानते हैं कोरोना वायरस के टेस्ट में पुराने वायरस के अंश या टुकड़े मिलना एक तरह ये समझाने में मदद करता है कि संक्रमण के मामले क्यों लगातार बढ़ रहे हैं जबकि अस्पतालों में पहुंच रहे लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है।
    ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ एविडेन्स बेस्ड मेडिसिन ने इस संबंध में 25 स्टडी से मिले सबूतों की समीक्षा की, पॉजिटिव टेस्ट में मिले वायरस के नमूनों को पेट्री डिश में डालकर देखा गया कि क्या वायरस की संख्या वहां बढ़ रही है? इस तरीके को वैज्ञानिक श्वाइरल कल्चरिंगश् कहते हैं जो ये बता सकता है कि जो टेस्ट किया गया है उसमें ऐसा एक्टिव वायरस मिला है जो अपनी संख्या बढ़ाने में सक्षम है या फिर मृत वायरस या उसके टुकड़े मिले हैं जिन्हें लेबोरेट्री में ग्रो नहीं किया जा सकता। महामारी की शुरूआत के दौर से ही वैज्ञानिक वायरस टेस्ट से जुड़ी इस मुश्किल के बारे में जानते हैं और ये एक बार फिर दर्शाता है कि क्यों कोविड-19 के जो आंकड़े सामने आ रहे हैं वो सही आंकड़े नहीं हैं, लेकिन इससे फर्क क्या पड़ता है? महामारी की शुरुआत में आंकड़े कम उपलब्ध थे, लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया अधिक आंकड़े मिलते गए। टेस्टिंग और नंबर को लेकर बड़ी मात्रा में आ रही जानकारी से कंफ्यूजन बढ़ा है।
    लेकिन ये बात सच है कि पूरे ब्रिटेन में देखें को कोरोना संक्रमण के मामले कई यूरोपीय देशों की तुलना में कम है। जहां तक बात स्थानीय स्तर पर संक्रमण के फैलने की है मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि उसे रोकने में हम कामयाब हुए हैं और ये तब है जब गर्मियां आने के साथ लॉकडाउन में थोड़ी बहुत ढील दी जानी शुरू हो गई है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि आगे क्या होगा, सर्दियों के दिन आने वाले हैं और स्कूलों में भी बच्चों की पढ़ाई शुरू हो रही है।
    बताया जाता है कोरोना वायरस टेस्टिंग का एक कारगर तरीका पीससीआर स्वैब टेस्ट है, जिसमें कैमिकल के इस्तेमाल से वायरस के जेनेटिक मटीरियल को पहचानने की कोशिश की जाती है और फिर इसका अध्ययन किया जाता है। पर्याप्त वायरस मिलने से पहले लेबोरेटरी में परीक्षण नमूने को कई चक्रों से होकर गुजरना पड़ता है। कितनी बार में वायरस बरामद किया गया ये बताता है कि शरीर में कितनी मात्रा में वायरस है, वायरस के अंश हैं या फिर पूरा का पूरा वायरस है। ये इस बात की ओर भी इशारा करता है कि जो वायरस शरीर में है वो कितना संक्रामक है। माना जाता है कि अगर टेस्ट करते वक्त वायरस पाने के लिए अधिक बार कोशिश हुई तो उस वायरस के लेबोरेटरी में बढ़ने की गुंजाइश कम होती है। लेकिन जब कोरोना वायरस के लिए आपका टेस्ट होता है तो आपको अक्सर हां या ना में जवाब मिलता है। नमूने में वायरस की मात्रा कितनी है और मामला एक्टिव संक्रमण का है या नहीं टेस्ट से ये पता नहीं चल पाता। जिन व्यक्ति के शरीर में बड़ी मात्रा में एक्टिव वायरस है और जिसके शरीर के नमूने में सिर्फ मृत वायरस के टुकड़े मिले हैं – दोनों के टेस्ट के नतीजे पॉजिटिव ही आएंगे।
    प्रोफेसर हेनेगन उन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने कोरोना से हो रही मौतों के आंकड़े किस तरह से दर्ज किए जा रहे हैं उसके बारे में जानकारी इकट्ठा की है। इसी के आधार पर पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड ने आंकड़े रखने के अपने तरीके में सुधार किया है। उनके अनुसार अब तक जो तथ्य मिले हैं उसके अनुसार कोरोना वायरस के संक्रमण का असर एक सप्ताह के बाद अपने आप कम होने लगता है।
    वो कहते हैं कि ये देखना संभव नहीं होगा कि टेस्ट किए गए हर नमूने में ऐक्टिव वायरस मिला या नहीं। ऐसे में यदि वैज्ञानिक टेस्टिंग में वायरस की मात्रा को लेकर कोई कट-ऑफ मार्क की पहचान कर सकें तो गलत पॉजिटिव नतीजे आने के मामलों को कम किया जा सकता है। इससे पुराने संक्रमण के मामलों के पॉजिटिव आने की दर कम होगी और कुल संक्रमण के आंकड़े भी कम हो जाएंगे।
    लेकिन जैसे-जैसे पीक कम होता जाता है ये स्थिति भी सुधरती जाती है। लंदन के इंपीरियल कॉलेज के प्रोफेसर ओपेनशॉ कहते हैं कि पीसीआर टेस्ट शरीर में बच गए वायरस के जेनेटिक मटीरियल का पहचान का बेहद संवेदनशील तरीका है। वे कहते हैं ये टेस्ट कोरोना वायरस की संक्रामकता का सबूत नहीं है, लेकिन डॉक्टरों का मानना है कि इस बात की संभावना बेहद कम है कि संक्रमण के दस दिन बाद भी व्यक्ति से शरीर में वायरस संक्रामक हो।

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