20 देशों की 73 फ़ीसद जनता मानती है पृथ्वी महाविनाश के मुहाने पर

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20 देशों की 73 फ़ीसद जनता मानती है पृथ्वी महाविनाश के मुहाने पर

-आईपीसीसी की ताज़ा रिपोर्ट ‘कोड रेड’ के माध्यम से हुआ खुलासा

नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले 20 देशों के 73 फीसद लोग मानते हैं कि इंसान की हरकतों की वजह से दुनिया एक अपूरणीय क्षति के मुहाने पर पहुंच रही है। आईपीसीसी की ताज़ा रिपोर्ट ‘कोड रेड’ के बाद आज ग्लोबल कॉमंस अलायंस ने द ग्लोबल कॉमन्स सर्वेः एटिट्यूड टू प्लेनेटरी स्टीवर्डशिप एंड ट्रांसफॉर्मेशन अमंग जी20 कंट्रीज़ नाम की एक रिपोर्ट जारी की है।
                       सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि जी20 देशों में रहने वाले ज्यादातर लोग (58 प्रतिशत) ग्लोबल कॉमंस की वर्तमान स्थिति को लेकर बहुत ज्यादा या फिर अत्यधिक चिंतित हैं। 83 फीसदी लोगों ने ग्लोबल कॉमन्स को फिर से उत्पन्न करने और उनकी रक्षा करने के लिए और अधिक काम करने की इच्छा जतायी है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देशों के लोगों ने प्रकृति और जलवायु की रक्षा के लिए ज्यादा काम करने की अधिक इच्छा दिखाई। जैसे कि जापान (61 प्रतिशत), जर्मनी (70) और अमेरिका (74) की तुलना में इंडोनेशिया (95), दक्षिण अफ्रीका (94), चीन (93) है।

भारत के संदर्भ में कुछ अहम बातें
– 77 फीसदी भारतीय जनता यह मानती है कि पृथ्वी टिपिंग पॉइंट्स के करीब है।
– 70 फीसदी भारतीय जनता आज प्रकृति की स्थिति को लेकर चिंतित हैं।
– भारत के 90 फीसदी लोग प्रकृति और जलवायु की रक्षा के लिए और अधिक करने को तैयार हैं।
– 78 फीसदी का मानना है कि प्रकृति की रक्षा के लाभ लागत से अधिक हैं।
– 35 फीसदी का कहना है कि सामर्थ्य कार्रवाई के लिए सबसे बड़ी बाधा है
– भारत के 77 फीसदी लोग एक अच्छी अर्थव्यवस्था की दिशा में एक कदम का समर्थन करते हैं जो आर्थिक विकास पर एकमात्र ध्यान केंद्रित करने के बजाय मानव कल्याण और प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग को प्राथमिकता देता है।
– 76 फीसदी का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र को वैश्विक आम लोगों की सुरक्षा के लिए अधिक शक्ति दी जानी चाहिए।
– भारत के 79 फीसदी लोगों का मानना है कि ब्व्टप्क्-19 महामारी समाज को झटकों के प्रति अधिक लचीला बनाने के लिए एक अनूठा क्षण है।
                     द ग्लोबल कॉमंस सर्वे : ‘एटिट्यूड्स टू प्लेनेटरी स्टीवर्डशिप एण्ड ट्रांसफॉर्मेशन एमंग जी20 कंट्रीज’ के मुख्य लेखक और ग्लोबल कॉमंस अलायंस के संचार विभाग के निदेशक ओवेन गेफेनी ने कहा “दुनिया नींद में चलते हुए महाविनाश की तरफ नहीं बढ़ रही है। लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि हम बहुत भारी जोखिम ले रहे हैं। वे धरती को बचाने के लिये और काम करना चाहते हैं और वे चाहते हैं कि सरकारें भी ऐसा ही करें।”
                      इस रिपोर्ट का प्राक्कथन लिखने वाली केन्या की पर्यावरणविद् और जलवायु संरक्षण कार्यकर्ता, वांगरी मथाई फाउंडेशन के अभियानों की मुखिया तथा ग्रीन जेनेरेशन इनीशियेटिव की संस्थापक एलिजाबेथ वथुटी ने कहा “दुनिया के सबसे धनी देशों के रहने वाले अधिसंख्य लोग भी ठीक वो ही बात महसूस करते हैं, जो हम कर रहे हैं। वे धरती की स्थिति को लेकर चिंतित हैं और इसे बचाना चाहते हैं। वे धरती के सेवक और रक्षक बनना चाहते हैं। मुझे लगता है कि इससे दुनिया भर के तमाम नेताओं की नींद टूटनी चाहिये।”
                      इस सर्वे में जी20 देशों में दबदबा रखने वाली आर्थिक प्रणालियों के प्रति व्यक्त उल्लेखनीय असंतोष को रेखांकित किया गया है। जी20 देशों में 74 प्रतिशत लोगों ने इस विचार का समर्थन किया कि उनके देश को मुनाफे और आर्थिक विकास के एकमात्र उद्देश्य के बजाय मानव कल्याण और पारिस्थितिकीय संरक्षण तथा उसकी पुनर्बहाली पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। यह विचार सभी जी20 देशों में लगातार प्रखर होता जा रहा है। यह इंडोनेशिया (86), तुर्की (85) और रूस (84) में खासतौर से ज्यादा प्रखर है, लेकिन सबसे कम स्कोर करने वाले देशों, जैसे कि अमेरिका (68), ग्रेट ब्रिटेन (68) और कनाडा (69 फीसदी) में भी यह विचार काफी मजबूती लेता जा रहा है।
                     गेफेनी ने कहा “इस रिपोर्ट के निष्कर्षों से जी20 देशों के नेताओं में हमारे वैश्विक साझा हितों को संरक्षित तथा पुनरुत्पादित करने के लिये अधिक महत्वाकांक्षी नीतियों को और तेजी से लागू करने के विश्वास का संचार होना चाहिये”
                      सर्वे में इस बात का खुलासा हुआ है कि लोग वैश्विक साझा हितों के संरक्षण तथा संयुक्त राष्ट्र के पेरिस समझौते के तहत निर्धारित जलवायु संबंधी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अगले दशक में आमूल-चूल सुव्यवस्थित रूपांतरण को लेकर बनाई गई वैज्ञानिक सर्वसम्मति के बारे में कम ही जानते हैं। जी-20 देशों के 59 फीसदी लोगों ने यह बताया कि वह अगले एक दशक के दौरान ऊर्जा क्षेत्र में बहुत तेजी से रूपांतरण की वैज्ञानिकों द्वारा व्यक्त की गई राय से वाकिफ हैं। वहीं, सिर्फ 8 फीसदी लोग यह सोचते हैं कि यह अगले दशक में व्यापक आर्थिक बदलावों की जरूरत के बारे में है। इन बदलावों में आहार संबंधी परिवर्तन और पर्यावरणीय लागतों को शामिल करने के लिए वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में बदलाव और सर्कुलर अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ना शामिल है। हालांकि 28 फीसदी लोग यह जानते हैं कि वैज्ञानिक उल्लेखनीय बदलाव की आवश्यकता के बारे में सोच रहे हैं।
“यह चिंताजनक है। हमें एक हाई प्रोफाइल और गहरा प्रभाव डालने वाले जन सूचना अभियान चलाने की जरूरत है ताकि वैश्विक साझा हितों के संरक्षण के लिए जरूरी रूपांतरण के स्तर और उसकी रफ्तार के बारे में बताया जा सके। यह महज ऊर्जा रूपांतरण तक सीमित बात नहीं है। यहां हर चीज के रूपांतरण की चर्चा की जा रही है। जहां लोगों को विध्वंस के लिए तैयार रहने की जरूरत है, वहीं रोजमर्रा की जिंदगी के फायदों पर अधिक जोर दिए जाने की जरूरत है। इन फायदों में रोजगार के अधिक अवसर, शहरों में कम प्रदूषण के बीच लोगों का जीवन यापन, पौष्टिक आहार, अधिक सामाजिक भरोसा, राजनीतिक स्थायित्व तथा सभी के लिए अधिक कल्याण शामिल है।“
                      इस सर्वे में धरती पर जीवन, ताजी हवा और जलवायु, महासागर, जंगल, हिम आवरण, ताजा पानी तथा धरती को स्थिर तथा सतत बनाने वाली अन्य प्रक्रियाओं को शामिल करने के लिए वैश्विक साझा हितों को परिभाषित किया गया है। सरलता बनाए रखने के लिए प्रकृति और वैश्विक साझा हितों को अदल-बदल कर इस्तेमाल किया गया है।
                        गैफेनी ने कहा “हम धनी अर्थव्यवस्थाओं तथा उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के निवासियों के बीच रवैये में भिन्नता को लेकर आश्चर्यचकित हैं। मैं यह अंदाजा लगा सकता हूं कि ब्राजील और इंडोनेशिया के वर्षावनों जैसी विशाल पारिस्थितिकियों वाले देशों के निवासियों के लिए वैश्विक साझा हितों का विध्वंस और भी ज्यादा साफ नजर आ रहा है। यह मुसीबत उनके दरवाजे तक पहुंच चुकी है। वैश्विक व्यापार अमीर अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में रहने वाले लोगों को प्रभावों से अलग करता है, लेकिन ऐसा क्यों है इस पर वाकई और ज्यादा काम करने की जरूरत है।“
सर्वे में यह भी पाया गया है कि 69 फीसदी लोग यह मानते हैं कि ग्लोबल कॉमंस को संरक्षित करने के लिए कदम उठाए जाने से मिलने वाले लाभ, उन पर होने वाले खर्च से ज्यादा हैं। चीन (82), ब्राज़ील (87) और इंडोनेशिया (85) के सबसे ज्यादा लोग इस बात से सहमत हैं। वहीं, फ्रांस (44), जापान (53) और अमेरिका 60 में इस राय से इत्तेफाक रखने वाले लोग कम हैं।
जी-20 देशों के 71 प्रतिशत लोग इस बात से सहमत हैं कि कोविड-19 महामारी से हुए नुकसान की भरपाई करना समाज को भविष्य के झटकों के प्रति अधिक लचीला बनाने का एक अनूठा मौका है। 75 प्रतिशत लोग मानते हैं कि महामारी ने यह जाहिर किया है कि लोगों के लिए अपने व्यवहार में बहुत तेजी से बदलाव लाने की क्षमता है। ज्यादातर लोग इस बात से भी सहमत हैं कि महामारी के बावजूद पर्यावरण तथा जलवायु का संरक्षण अब भी एक प्राथमिकता है। सिर्फ 26 फीसदी लोग यह मानते हैं कि देशों के पास चिंता करने के लिए पहले ही काफी चीजें हैं। हालांकि भारत के 56 फीसदी लोग यह मानते हैं कि कोविड-19 महामारी से हुए नुकसान की भरपाई का मतलब यह है कि हमारी प्रकृति प्राथमिकताओं की सूची में काफी नीचे आती है।
                       वैश्विक साझा हितों की मौजूदा स्थिति को लेकर व्यापक स्तर पर चिंता जताए जाने के बावजूद सिर्फ एक तिहाई यानी कि 34 फीसदी लोग ही यह मानते हैं कि बच्चों को स्कूल में पर्यावरण सहित ग्लोबल कॉमंस के संरक्षण के बारे में शिक्षा दिया जाना महत्वपूर्ण है। लोगों से पूछा गया था कि वह 12 मूल्यों के बीच चुनाव करें कि बच्चों को अन्य लोगों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान पूर्ण रवैया अपनाने, धार्मिक आस्था, स्वतंत्रता, कड़ी मेहनत और आज्ञाकारिता के बारे में पढ़ाया जाना जरूरी है। जी-20 देशों में किए गए सर्वेक्षण में वैश्विक साझा हितों के संरक्षण को शीर्ष तीन मूल्यों में भी शामिल नहीं किया गया। अर्जेंटीना, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इटली तथा मेक्सिको ने इसे चौथे पायदान पर रखा है।
                        अर्थ कमीशन की सदस्य, यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस और स्कूल ऑफ ज्योग्राफी, डेवलपमेंट एंड एनवायरनमेंट, एरिज़ोना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डायना लिवरमैन ने कहा “कई देशों में प्रकृति की रक्षा के लिए जागरूकता, चिंता और कार्य करने की इच्छा के बहुत उच्च स्तर पाया जाना इस सर्वेक्षण के कुछ सबसे महत्वपूर्ण परिणाम हैं, इनमें उत्तरी अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों के साथ-साथ अक्सर वैश्विक दक्षिण कहे जाने वाले – अर्जेंटीना, ब्राजील, चीन, भारत, इंडोनेशिया, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं। लोग वास्तव में प्रकृति की रक्षा के लिए कुछ करना चाहते हैं, लेकिन वे यह भी बताते हैं कि उनके पास जानकारी की कमी है और वे क्या कर सकते हैं इसके लिए उन्हें वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर देशों में अधिकांश लोग जानते हैं कि हमें अपनी ऊर्जा प्रणालियों को बदलने की जरूरत है। लगभग एक तिहाई लोगों ने भी हमारे भोजन, मूल्य और आर्थिक प्रणालियों को बदलने की आवश्यकता को स्वीकार किया है। जैसा कि पिछले पर्यावरणीय दृष्टिकोण सर्वेक्षणों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं और युवा लोग अधिक चिंतित और कार्योन्मुखी नजर आये थे।”
                        आईपीएसओएस मोरी के अनुसंधान निदेशक ब्रिजेट विलियम्स ने कहा, “यह सर्वेक्षण स्पष्ट रूप से दिखाता है कि जी20 के लोग भविष्य में वैश्विक साझा हितों की रक्षा और उसे बहाल करने में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं। स्थानीय और वैश्विक नेतृत्व दोनों से ही उनकी यही अपेक्षा है। कई लोगों को यह भी लगता है कि मीडिया कवरेज उन्हें इस बारे में साफ जानकारी नहीं देता कि वे व्यक्तिगत रूप से मदद के लिए क्या कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि असल में व्यक्तिगत कार्यों के बारे में अधिक जानकारी दिये जाने की जरूरत है जो लोग योगदान के तौर पर कर सकते हैं। विशेष रूप से युवाओं और बच्चों वाले परिवारों से। नीति निर्माताओं को इस अवसर का उपयोग अपने देश में नागरिकों को सकारात्मक कार्रवाई की ओर लामबंद करने के लिए करना चाहिए।
                         वे अपने देश में आवश्यक परिवर्तनों को प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों द्वारा किए जा सकने वाले योगदान के बारे में स्पष्ट जानकारी देकर ऐसा करना शुरू कर सकते हैं।”

जी20 देशः  अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, (यूरोपीय यूनियन समेत)।
                        सर्वेक्षण में अर्थ फॉर ऑल ने भी सहयोग दिया है। यह पृथ्वी को स्थिर करने और दुनिया के ज्यादातर लोगों को खुशहाल बनाने के रास्ते और नई आर्थिक प्रणालियों की खोज करने वाली एक नई पहल है, और फेयरट्रांस एक नया स्वीडिश अनुसंधान कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य समाजों का सतत रूपांतरण करना है।

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