सैटेलाइट लॉन्चिंग होगी सस्ती, इसरो ने तैयार किया रीयुजेबल स्पेसक्राफ्ट

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सैटेलाइट लॉन्चिंग होगी सस्ती, इसरो ने तैयार किया रीयुजेबल स्पेसक्राफ्ट

-इसरो का दावा-हमारी टेक्नोलॉजी मस्क के रॉकेट से अलग, ज्यादा किफायती और कारगर

नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/बेंगलुरू/शिव कुमार यादव/- इसरो अंतरिक्ष में एक ऐस रॉकेट के निर्माण में जुटा है जिसके पूर्ण होने पर न केवल ज्यादा पैसों की बचत होगी बल्कि ये सैटेलाइट को स्पेस में छोड़ने के बाद वापस पृथ्वी पर लौट आएगा। यानी इसरो का स्पेसक्रॉफ्ट ऑटोनॉमस लैंडिंग कर सकता है।  इसरो का रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल (आरएलवी) नासा के स्पेस शटल की तरह ही है। जिसके 2030 तक पूरा होने पर, यह विंग वाला स्पेसक्राफ्ट पृथ्वी की निचली कक्षा में 10,000 किलोग्राम से ज्यादा वजन ले जाने में सक्षम होगा। सैटेलाइट को बेहद कम कीमत पर ऑर्बिट में स्थापित किया जा सकेगा।
                रीयूजेबल रॉकेट के पीछे का आइडिया स्पेसक्राफ्ट को लॉन्च करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अल्ट्रा-एक्सपेंसिव रॉकेट बूस्टर को रिकवर करना है। ताकि, फ्यूल भरने के बाद इनका फिर से इस्तेमाल किया जा सके। दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स ने सबसे पहले 2011 में इस पर काम करना शुरू किया था। 2015 में मस्क ने फॉल्कन 9 रॉकेट तैयार कर लिया जो रियूजेबल था। लेकिन इसरो का रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल (आरएलवी) स्पेसएक्स से बिल्कुल अलग है। मिशन के दौरान स्पेसएक्स रॉकेट के निचले हिस्से को बचाता है, जबकि इसरो रॉकेट के ऊपरी हिस्से को बचाएगा जो ज्यादा जटिल होता है।
                  रविवार यानी 2 अप्रैल 2023 को इसरो ने अपने रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल की सक्सेसफुली लैंडिंग कराई। दुनिया में पहली बार, एक विंग वाली बॉडी को हेलिकॉप्टर से 4.5 किमी की ऊंचाई तक ले जाया गया है और रनवे पर ऑटोनॉमस लैंडिंग के लिए छोड़ा गया है।

अब रीयूजेबल टेक्नोलॉजी को समझें…
किसी भी रॉकेट मिशन में 2 बेसिक चीजें होती है। रॉकेट और उस पर लगा स्पेसक्राफ्ट। रॉकेट का काम स्पेसक्राफ्ट को अंतरिक्ष में पहुंचाना होता है। अपने काम को करने के बाद रॉकेट को आम तौर पर समुद्र में गिरा दिया जाता है। यानी इसका दोबारा इस्तेमाल नहीं होता। लंबे समय तक पूरी दुनिया में इसी तरह से मिशन को अंजाम दिया जाता था। यही पर एंट्री होती है रियूजेबल रॉकेट की।
                  नासा की ये स्पेस शटल टेक्नोलॉजी दुनिया की पहली रीयूजेबल स्पेसक्राफ्ट टेक्नोलॉजी है। ये इतिहास में पहला अंतरिक्ष यान भी है जो बड़े सैटेलाइट को ऑर्बिट में और ऑर्बिट से बाहर ले जा सकता था। नासा के पास ऐसे 6 स्पेस शटल थे। चैलेंजर, कोलंबिया, अटलांटिस, डिस्कवरी, एंडेवर और एंटरप्राइज। चैलेंजर और कोलंबिया हादसे का शिकार हो गए, बाकी स्पेसक्राफ्ट म्यूजियम में रखे हुए हैं। एंटरप्राइज ने कभी भी उड़ान नहीं भरी।
                  नासा का पहला स्पेस शटल मिशन 1981 में लॉन्च किया गया था। आखिरी मिशन साल 2011 में लॉन्च हुआ था। इसके बाद नासा स्पेस स्टेशन तक एस्ट्रोनॉट को भेजने के लिए रूस के सोयूज स्पेस क्राफ्ट का इस्तेमाल करने लगा। हालांकि, अब प्राइवेट स्पेस एजेंसी स्पेसएक्स के स्पेसक्राफ्ट से एस्ट्रोनॉट को स्पेस स्टेशन पहुंचाया और वापस लाया जाता है।
                 इससे मिशन की कॉस्ट काफी कम हो गई। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए आप नई दिल्ली से न्यूयॉर्क का सफर एक प्लेन में तय कर रहे हैं, लेकिन ये प्लेन एक ऐसी टेक्नोलॉजी पर काम करता है जिसका इस्तेमाल केवल एक बार किया जा सकता हो। सोचिए इससे प्लेन का सफर कितना महंगा हो जाता, क्योंकि हर बार नई दिल्ली से न्यूयॉर्क जाने के लिए नया प्लेन बनाना पड़ता।

इसरो का आरएलवी लैंडिंग एक्सपेरिमेंट सफल
इसरो अपने रियूजेबल लॉन्च व्हीकल पर लंबे समय से काम कर रहा है। ये अभी अपने इनिशियल स्टेज में है। रविवार यानी 2 अप्रैल 2023 को इसरो ने अपने इस व्हीकल का ऑटोनॉमस लैंडिंग एक्सपेरिमेंट किया। ऑटोनॉमस लैंडिंग यानी स्पेसक्राफ्ट का बिना किसी की मदद से लैंड कर सकना। ये एक्सपेरिमेंट पूरी तरह से सक्सेसफुल रहा।
                   इंडियन एयरफोर्स के चिनूक हेलिकॉप्टर से आरएलवी को सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर 4.5 किमी की ऊंचाई तक ले जाया गया। इसके बाद वहां से लॉन्च व्हीकल को रिलीज कर दिया गया। आरएलवी का रिलीज ऑटोनॉमस था। इसने लैंडिंग के लिए इंटीग्रेटेड नेविगेशन, गाइडेंस और कंट्रोल सिस्टम का इस्तेमाल किया। सुबह 7ः40 बजे व्हीकल ने एयरस्ट्रिप पर ऑटोनॉमस लैंडिंग पूरी की।
                  स्पेस एजेंसी का दावा है दुनिया में पहली बार, एक विंग वाली बॉडी को हेलिकॉप्टर से 4.5 किमी की ऊंचाई तक ले जाया गया है और रनवे पर ऑटोनॉमस लैंडिंग के लिए छोड़ा गया है। आरएलवी-टीडी में एक फ्यूजलेज स्ट्रेट बॉडी, एक नोज कैप, डबल डेल्टा विंग्स और ट्विन वर्टिकल टेल्स हैं। इसकी लंबाई 6.5 मीटर और चौड़ाई 3.6 मीटर है।

विंग्ड स्पेस शटल पर क्यों काम कर रहा इसरो?
1980 के दशक में अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने दुनिया का पहला विंग्ड स्पेस शटल लॉन्च किया था। इसका नाम कोलंबिया था। नासा के पास ऐसे कुल 6 स्पेस शटल थे। हादसों के बाद 2011 में नासा ने इन शटल्स को रिटायर कर दिया। रूस ने भी बुरान नाम से अपनी रीयूजेबल स्पेस शटल टेक्नोलॉजी डेवलप की थी, लेकिन कुछ ही मिशन के बाद इसे बंद कर दिया गया।
                    ऐसे में सवाल उठता है कि है कि जब अमेरिका और रूस विंग्ड स्पेस शटल पर काम बंद कर चुके हैं तो इसरो इस पर काम क्यों कर रहा है? स्पेस टेक्नोलॉजी के कुछ एक्सपर्ट कहते हैं कि अमेरिका और रूस की जो टेक्नोलॉजी थी वो 20वीं सदी की थी, यानी पुरानी टेक्नोलॉजी। इसरो जिस टेक्नोलॉजी से विंग्ड स्पेस शटल बना रहा है वो 21वीं सदी की है। ऐसे में इसरो का शटल अमेरिका-रूस के शटल की तुलना में एडवांस होगा।

इसरो को रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल से क्या फायदा होगा?
रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल से इसरो को स्पेस में लॉ-कॉस्ट एक्सेस मिलेगा। यानी स्पेस में ट्रैवल करना सस्ता हो जाएगा। सैटेलाइट को कम कीमत पर लॉन्च किया जा सकेगा। ये भी कयास लगाए जा रहे हैं कि इस व्हीकल की मदद से ऑर्बिट में खराब हुए सैटेलाइट को डेस्ट्रॉय करने के बजाय रिपेयर किया जा सकेगा। इसके अलावा जीरो ग्रैविटी में बायोलॉजी और फार्मा से जुड़े रिसर्च करना आसान हो जाएगा।

इसरो का व्हीकल कब तक तैयार हो जाएगा?
इसरो ने सबसे पहले मई 2016 में इसकी टेस्टिंग की थी। इसका नाम हाइपरसोनिक फ्लाइट एक्सपेरिमेंट (एचइएक्स) था। हेक्स मिशन में इसरो ने अपने विंग वाले व्हीकल आरएलवी-टीडी की रि-एंट्री को डेमॉन्सट्रेट किया था। अब लैंडिंग एक्सपेरिमेंट यानी एलइएक्स को भी पूरा कर लिया गया है। आने वाले दिनों में रिटर्न टु फ्लाइट एक्सपेरिमेंट (आरइएक्स) और स्क्रैमजेट प्रपल्शन एक्सपेरिमेंट (एसपीइएक्स) को अंजाम दिया जाएगा।
                 ऐसे में एक्सपर्ट उम्मीद जता रहे हैं कि इसरो का व्हीकल 2030 के दशक में उड़ान भर पाएगा। भविष्य में इस व्हीकल को भारत के रियूजेबल टू-स्टेज ऑर्बिटल लॉन्च व्हीकल का पहला स्टेज बनने के लिए स्केल किया जाएगा। इसरो के अनुसार त्स्ट-ज्क् का कॉन्फिगरेशन एक एयरक्राफ्ट के समान है और लॉन्च व्हीकल और एयरक्राफ्ट दोनों की कॉम्प्लेक्सिटी को कंबाइन करता है।

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