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    सिंधुदेश के नाम पर उठ रही पाकिस्तान में अलगाव की मांग

    -पाकिस्तान पर पंजाब के आगे दोयम दर्जे के व्यवहार का लगाया आरोप

    इस्लामाबाद/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/- पाकिस्तान में सिंधुदेश की मांग फिर तेज होने लगी है। सिंध सूबे के सिंधी पिछले सात दशकों से अपने लिए एक अलग सिंधुदेश की मांग कर रहे हैं। लेकिन, पाकिस्तान ने बंदूक के दम पर उनकी आवाज को दबाए रखा है। अब यह आंदोलन फिर से जोर पकड़ रहा है। सिंधुदेश की मांग करने वाले अधिकतर सिंधी ऊर्दू बोलते हैं। शुरुआत में सिंधुदेश की मांग इन्हीं उर्दू भाषी मुजाहिरों ने उठाई थी, लेकिन बाद में पाकिस्तानी पंजाबियों ने राजनीति से लेकर सेना तक सभी महत्वपूर्ण संस्थानों पर कब्जा कर लिया और इस मांग को कुचल डाला।

    पाकिस्तानी पंजाबियों ने सिंध को सताया
    पाकिस्तानी पंजाबियों ने सिंध, बलूचिस्तान और पश्तून आदिवासी क्षेत्रों में मूल निवासियों को पाकिस्तान के सामाजिक-आर्थिक विकास के रास्ते में हाशिये पर धकेल दिया। इसका सटीक उदाहरण सिंध खुद है। पाकिस्तान का सबसे महत्वपूर्ण सूबा होने के बावजूद सिंध को पंजाब की तुलना में केंद्र सरकार से कम पैसा, राष्ट्रीय वित्त आयोग (एनएफसी) में कम हिस्सेदारी, सरकारी नौकरियों में कम अवसर मिलते हैं। इसके ठीक उलट सिंध के लोगों पर सरकारी तंत्र ज्यादा दमनकारी कार्रवाई करता है।

    1950 में सिंधुदेश आंदोलन की पड़ी नींव
    सिंधुदेश आंदोलन की उत्पत्ति 1950 के दशक में विवादित ’वन यूनिट प्लान’ के तहत पाकिस्तान की राजनीति के केंद्रीकरण से हुई। इसमें सिंध, बलूचिस्तान, पाकिस्तानी पंजाब और उत्तर-पश्चिम फ्रंटियर प्रांत (एनडब्ल्यूएफपी) के प्रांतों को एक यूनिट में पुनर्गठित किया गया। अत्याधिक केंद्रीकरण का यह निरंकुश कदम 1970 तक जारी रहा, जब जनरल याह्या खान के नेतृत्व में सेना ने सत्ता संभाली। इससे सिंध के लोगों में व्यापक आक्रोश फैल गया और देश में क्षेत्रीय स्वायत्तता और फेडलरिज्म की मांग उठने लगी। सिंधी राष्ट्रवादी इस अवधि को अपने इतिहास का सबसे काला युग मानते हैं, क्योंकि इस दौरान यह प्रांत पूरी तरह से पाकिस्तानी पंजाबियों के प्रभुत्व में आ गया था।

    मुहाजिरों ने सिंधियों के असंतोष को बढ़ाया
    सिंध में असंतोष के बीज पाकिस्तान के निर्माण के दौरान ही भारत से आए उर्दू भाषी मुहाजिरों की आमद से शुरू हो गई थी। मुहाजिर सिंध की राजधानी कराची में आकर बस गए और उनका स्थानीय सिंधियों के साथ दुश्मनी शुरू हो गई। सिंधियों ने सरकार के इस कदम को कराची की जनसांख्यिकी में परिवर्तन के तौर पर देखा। पाकिस्तानी सेना और तत्कालीन सरकार के इन कदमों को सिंध के निवासियों ने एक बड़े भेदभाव के तौर पर देखा और उनके भीतर असंतोष और ज्यादा गहरा गया। उर्दू को पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाने से सिंधियों का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया और लोगों में धारणा बन गई कि उनका सांस्कृतिक इतिहास खतरे में है।

    उर्दू ने भी सिंधदेश की मांग को भड़काया
    फरहान हनीफ सिद्दीकी ने अपनी 2012 की किताब द पॉलिटिक्स ऑफ एथनिसिटी इन पाकिस्तान में तर्क दिया है कि उर्दू को देश की भाषा बनाने का सबसे अधिक नुकसान सिंधियों को हुआ। उन्हें सरकारी नौकरियों और पदों के लिए आवेदन करने के लिए एक नई भाषा सीखनी पड़ी। इन घटनाओं ने सिंधियों में लगातार अलगाव की भावना को जन्म दिया। आधुनिक सिंधी राष्ट्रवाद के संस्थापक जनक माने जाने वाले गुलाम मुर्तजा सैयद ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पर सिंध के प्रमुख शहर कराची को काटकर उसे खंडित करने और लियाकत अली खान के नेतृत्व वाले केंद्रीय प्रशासन को सौंपने का आरोप लगाया था।

    गुलाम मुर्तजा ने सिंधदेश की उठाई मांग
    सिंधियों के लिए विभाजन के दौरान सामाजिक-आर्थिक रूप से प्रभावशाली हिंदुओं का भारत भागना कोई लाभ नहीं दे सका, क्योंकि मुहाजिरों ने उनकी संपत्तियों के साथ सरकारी नौकरियों पर भी कब्जा कर लिया। पाकिस्तानी सत्ता के हाथों लगातार हाशिए पर रहने के बाद, गुलाम मुर्तजा सैयद ने पहली बार सिंध की आजादी और 1972 में जातीय सिंधुदेश की स्थापना का आह्वान किया। आजादी के लिए ये आह्वान बांग्लादेश के निर्माण और पाकिस्तान के विभाजन से भी प्रभावित थे। सैयद ने अपनी 1974 की पुस्तक “ए नेशन इन चेन्सः सिंधुदेश“ में, जो सिंधुदेश का एक खाका और उनकी अवधारणा प्रदान की है।

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