कुछ कुछ अजीब-सा लग रहा होगा आपको। कवि यहाँ से लेकर वहाँ तक पहुँच जाते हैं। जहाँ तक लोगों की सोच ही नहीं जा पाती वहाँ कवि आपको मौजूद मिलेगा। कहावत भी है कि फ्जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।य् ऐसा नहीं है कि कवि आदमी नहीं होता पर आम लोगों से अलग होता है। कब, कैसे, कौन-सी सोच उत्पन्न हो जाय। फिर दे बीजारोपण कैसे करता है, कुछ ही समय बाद कविता की फसल लहलहाती पायेंगे आप। आजकल कवि जहाँ चाहे वहाँ उग आते हैं, गाजर घास की तरह। फसल के लिए ऊपजाऊ जमीन का होना जरूरी है, बंजर जमीन पर ऽेती नहीं होती है। पर कवि के लिए सिर्फ जमीन की जरूरत है। वह बंजर से बंजर जमीन में भी कविता की लहलहाती फसल बो सकता है। बोना व काटना उसका काम है, उस फल को ऽाना व पचा लेना पाठकों का काम है। दुनिया में हर वस्तु पैसे से मिलती है पर कविता आप फोकट में जितनी चाहें उतनी ग्रहण कर सकते हैं, बस यह देखना होगा कि आपमें उसको झेलने व सहने की कितनी शक्ति है। जो पाठक लगातार कई कवियों को कई दिनों तक सुनता है, उसकी सहनशक्ति, धैर्यता व स्वभाव में गंभीरता आ जाती है। हजारों रुपये खर्च कर दवाई लेने के बाद भी ये तीनों बातों का नुक्सा आपको कोई डॉक्टर नहीं दे सकता पर कवि अपने धर्म को निभाते हुए कविता रूपी दवा से आप में ये गुण पैदा कर एक परोपकार का कार्य करता है।
इस बार डायमंड बुक्स आपके समक्ष लेकर आया है राजेन्द्र पटोरिया की पुस्तक 51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचानाएं है। जैसे कि मरघट में कवि सम्मेलन, भिखारी से भीखू पुजारी, कूडे में जीवन की तलाश, और बड़े साहब, कुत्ता संस्कृति, लंगोटी बच गयी आदि। राजेन्द्र पटोरिया का कहना है कि ‘मुड़ाओ मूँछ लगाओ पूँछ’ नाम से व्यंग्य संग्रह बहुत अच्छा छपा तथा मेरे आग्रह पर इसकी 50 प्रतियाँ भी दीं। फिर क्या था व्यंग्य लिखने के प्रति रुझान बढ़ गया। जब मेरी रुचि व्यंग्य क्षणिकाओं की ओर बढ़ी।
दिल्ली के डायमंड बुक्स द्वारा आजादी से संबंधित तीन पुस्तकें प्रकाशित हुईं। जब मैं दिल्ली गया इसके प्रबंधक भाई नरेन्द्र वर्मा जी से मिला। वे बड़े आत्मीय दिलेर, स्पष्टवादी व तुरंत निर्णय लेने वाले व्यक्ति लगे। बहुत विषयों पर लम्बी चर्चा भी हुई। उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मैं अपने प्रकाशित/अप्रकाशित 51 चुने हुए व्यंग्य भेजूं वे उसे प्रकाशित करना चाहेंगे। नागपुर आकर मैंने अपने सैकड़ों प्रकाशित/अप्रकाशित व्यंग्य लेखों को पढ़ा उनमें से 51 व्यंग्य निकालना बहुत कठिन हो गया किसे लूँ किसे न लूँ। मुझे तो मेरा हर व्यंग्य अच्छा लग रहा था फिर से दो-तीन बार पढ़ने के बाद प्रकाशित/अप्रकाशित व्यंग्य पर कार्य पूरा हो गया। अब पुस्तक आपके हाथों में है।


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