नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/उत्तर प्रदेश/शिव कुमार यादव/- शिवपाल यादव अब अखिलेश यादव को लेकर इतने मुलायम हो गए कि अखिलेश को ही उन्होंने सपा के ’नए नेताजी’ के रूप में स्वीकार कर लिया है जबकि सपा के नेताजी के तौर पर अभी तक मुलायम सिंह यादव को ही जाना जाता है। लेकिन अब
शिवपाल यादव के सामने ऐसी क्या विकट स्थिति बनी की उन्होने अखिलेश को सपा का नया नेताजी मान लिया। इसमें शिवपाल यादव की कोई मजबूरी है या फिर भतीजे को लेकर उनका मन बदल गया है। राजनीतिक गलियारों में शिवपाल की पार्टी के औचित्य को लेकर चल रही चर्चाओं से तो यही लगता है कि अब शिवपाल ने पूरी तरह से अखिलेश की शरण को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर प्रदेश की सत्ता में समाजवादी पार्टी दोबारा से वापसी के लिए हरसंभव कोशिशों में जुटी है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी अध्यक्ष शिवपाल यादव के बीच जमी दुश्मनी की बर्फ पिघल गई है। चाचा-भतीजे के बीच गठबंधन भी तय हो चुका है। साथ-साथ चलने पर मन बनाने के साथ-साथ अखिलेश यादव को सीएम बनाने का बीड़ा भी शिवपाल ने उठा लिया है। इतना ही नहीं शिवपाल ने यहां तक मान लिया है कि अखिलेश यादव ही सपा के’नए नेताजी’ हैं?
शिवपाल सिंह यादव के तेवर ढाई साल पहले तक समाजवादी पार्टी को लेकर काफी सख्त थे. लेकिन शिवपाल यादव अब अखिलेश यादव को लेकर इतने मुलायम हो गए कि अखिलेश को ही सपा के ’नए नेताजी’ के रूप में स्वीकार कर लिया है जबकि सपा के नेताजी के तौर पर अभी तक मुलायम सिंह यादव को जाना जाता है. ऐसे में सवाल उठता है कि शिवपाल की सियासी मजबूरी है या फिर भी अखिलेश को नेता मानना वक्त की जरूरत है।
दरअसल, पांच साल पहले ’मुलायम परिवार’ में मची सियासी कलह के चलते शिवपाल यादव और उनके करीबी नेता सपा छोड़कर चले गए थे या फिर उन्हें सपा से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। शिवपाल ने अक्टूबर 2018 में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) का गठन कर लिया, जिसके बाद सपा दो धड़ों में बट गई थी। चाचा-भतीजे के सियासी वर्चस्व की जंग में दोनों को सियासी खामियाजा भुगतना पड़ा है. हालांकि, अखिलेश यादव खुद को मुलायम सिंह के वारिस के तौर पर स्थापित करने में सफल रहे हैं।
वहीं प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के गठन के बाद शिवपाल यादव ने 2019 लोकसभा चुनाव में खुद फिरोजाबाद सीट पर लड़ने के साथ-साथ सूबे की 47 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। शिवपाल ने ज्यादातर उन लोगों को टिकट दिए थे जो सपा को छोड़कर आए थे। शिवपाल ने रायबरेली से रामसिंह, सहारनपुर से हाजी मोहम्मद उवैश तो रामपुर से संजय सक्सेना, मिश्रिख से अरुण कुमारी कोरी और संभल से करन सिंह यादव समेत 31 नेताओं को टिकट दिया। इसमें कोई भी चुनाव में करिश्मा नहीं दिखा .सका।
शिवपाल यादव भले ही फिरोजाबद सीट पर एक लाख वोट पाने में सफल रहे, लेकिन उनकी पार्टी के बाकी कैंडिडेट अपनी जमानत बचाना तो दूर की बात थी, 25 हजार वोट भी हासिल नहीं कर सके। इतना ही नहीं हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में इटावा छोड़कर बाकी जिलों में शिवपाल की पार्टी के जिला पंचायत सदस्य भी जीत नहीं सके। शिवपाल को संगठन का नेता माना जाता था इसके बाद भी वो सूबे में अपनी पार्टी के लिए सियासी जमीन तैयार नहीं कर सके और ना ही अपने को सपा के विकल्प के तौर पर स्थापित कर सके।
वहीं, अखिलेश यादव को खुद को यादव समाज के बीच मुलायम के सियासी वारिस के तौर पर स्थापित करने में सफल रहे हैं। इसका सियासी असर यह रहा कि सपा छोड़कर जाने .वाले नेताओं ने घर वापसी करना शुरू कर दी। ऐसे में शिवपाल के साथ भी जिन्होंने सपा को अलविदा कहा था उन्होंने दोबारा से साईकिल पर सवारी करने के लिए बेताब दिखे। नारद राय, रामलाल अकेला, अंबिका चौधरी ने सपा का दामन थाम लिया। शिवपाल के करीबी भगवती सिंह के बेटे पूर्व विधायक राजेंद्र यादव भी सपा में एंट्री कर गए हैं।
2022 के विधानसभा चुनाव के लिए अखिलेश यादव ने तमाम छोटे और जातीय आधार वाले दलों के साथ गठबंधन कर रखा है, जिसके चलते सूबे में सपा और बीजेपी के बीच सीधी लड़ाई होती दिख रही है। इतना ही नहीं अखिलेश के विजय रथ यात्रा और चुनावी जनसभाओं में भीड़ भी काफी जुट रही है। बसपा, कांग्रेस सहित दूसरे दलों के तमाम नेता सपा का दामन थाम रहे हैं।
वहीं, उत्तर प्रदेश की मौजूदा सियासी माहौल में शिवपाल यादव के सामने कोई बड़ा सियासी ऑफर नजर नहीं आ रहा है। 2019 के चुनाव में हारने के बाद उनकी लोकप्रियता भी कम हुई है और किसी भी दल ने उनके साथ गठबंधन के लिए हाथ नहीं बढाया है। ऐसे में शिवपाल के सामने अखिलेश की साइकिल पर सवारी करना सियासी मजबूरी बन गई थी, जिसके लिए उन्होंने सपा के साथ गठबंधन से लेकर विलय तक करने की बात सार्वजनिक रूप से कहना शुरू दिया था।
शिवपाल यादव के लगातार बयान के बाद 17 दिसंबर को अखिलेश यादव ने पहुंचकर चाचा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर मुहर लगा दी। ऐसे में अब शिवपाल यादव अपनी पार्टी. का विलय सपा में करने पर मंथन कर रहे हैं। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि शिवपाल की पार्टी का सिंबल चाबी अब फ्री सिबंल नहीं है। वह हरियाणा की जेजेपी..पार्टी के पास है। ऐसे में शिवपाल का सपा के चुनाव निशान साइकिल पर लड़ना मजबूरी बन गई है, जिसके चलते वो अब अपनी पार्टी के विलय के साथ-साथ अखिलेश को भी नेता मानने के लिए तैयार नजर आ रहे हैं।
-राजनीतिक विशेषज्ञों ने बताया शिवपाल यादव की मजबूरी, कहा उनकी पार्टी का कोई औचित्य ही नही बचा
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