नई दिल्ली/उमा सक्सेना/- देश में हाल ही में घटित दो घटनाएँ—CJI के समक्ष जूता उछालने की कोशिश और एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा आत्महत्या—सिर्फ़ कानून-व्यवस्था की दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और संवैधानिक समानता के विश्वास से जुड़े गहरे प्रश्न खड़े करती हैं। इन घटनाओं को यदि केवल राजनीतिक चश्मे से देखा गया, तो यह न केवल एक बड़ी चूक होगी, बल्कि उस वर्ग के भावनात्मक आघात को नज़रअंदाज़ करने जैसा होगा, जो पीढ़ियों से सम्मान के संघर्ष का सामना कर रहा है।
उच्च पद भी नहीं तोड़ पा रहे सामाजिक भेदभाव की दीवार
जिस समाज में यह मान लिया गया था कि शिक्षित होना और बड़े पदों तक पहुँचना, जातिवादी मानसिकता को पीछे छोड़ देता है, उसी समाज से ऐसे संकेत आ रहे हैं कि भले ही व्यक्ति का पद ऊँचा हो जाए, लेकिन उसके साथ होने वाला व्यवहार अभी भी उसकी जातीय पहचान के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। यह स्थिति उन लोगों के लिए सबसे बड़ा झटका है, जिन्होंने संविधान और समानता के अधिकार को अपना आधार मानकर मेहनत की और सफलता पाई।
न्यायिक प्रणाली पर भरोसे की डगमगाती नींव
दलित और पिछड़े समुदायों के भीतर एक गहरी बेचैनी दिखाई दे रही है। वे भले ही सार्वजनिक मंचों पर शांत प्रतीत हों, लेकिन उनके भीतर यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि यदि उच्च पद पर पहुंचने के बाद भी न्याय पाने में देरी, उपेक्षा या संवेदनहीनता झेलनी पड़े, तो फिर साधारण नागरिक किस आधार पर न्याय की उम्मीद करे? यह भावनात्मक चोट केवल व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं, बल्कि सामूहिक असुरक्षा का संकेत देती है।
शिक्षा और मेहनत से ऊपर उठने का विश्वास कहीं कमजोर न पड़ जाए
इन घटनाओं का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इससे उन करोड़ों युवाओं का भरोसा कमजोर हो सकता है, जो गरीबी और सामाजिक भेदभाव को पीछे छोड़ने के लिए शिक्षा को हथियार बना रहे हैं। यदि उन्हें यह संदेश मिलता है कि ऊँचे पद भी सामाजिक सम्मान की गारण्टी नहीं हैं, तो ‘पढ़ो और आगे बढ़ो’ की अवधारणा अपनी प्रभावशीलता खो सकती है। यह केवल व्यक्तिगत निराशा नहीं होगी, बल्कि राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने के लिए गंभीर खतरा बन सकती है।
सरकार और संस्थाओं को समझना होगा समाज के मौन को
यह समय सत्ता और संस्थाओं के लिए संवेदनशीलता दिखाने का है। देश का आम नागरिक सब कुछ देख रहा है—न्याय की प्रक्रिया, अधिकारियों का रवैया और संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता। यह आवश्यक है कि न्याय केवल किया ही न जाए, बल्कि यह स्पष्ट रूप से महसूस भी हो कि न्याय में कोई पक्षपात नहीं है। यही वह क्षण है जब राज्य को यह सिद्ध करना होगा कि संविधान सिर्फ कागज़ पर लिखा दस्तावेज़ नहीं, बल्कि व्यवहार में लागू होने वाली जीवित भावना है।


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