नजफगढ़ मैट्रो न्यूज डेस्क/शिव कुमार यादव/- ज्ञानवापी मामले के बीच समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के हाल ही में किए गए दावे को लेकर नई बहस छिड़ गई है। लेकिन बद्रीनाथ, केदारनाथ समेत कई मंदिरों को लेकर किये गये दावे में इतिहासकारों के मत चाहे कुछ भी हों लेकिन पुरातत्ववेताओं की माने तो बद्रीनाथ, केदारनाथ मंदिरों में ऐसे कोई सबूत नही मिले है जिनसे ये सिद्ध होता हो की यहां कभी बौद्ध स्तूप या मठ थे। हालांकि कुछ इतिहासकार इस दावें में सच्चाई देखते है जबकि ज्यादातर इतिहासकार इस दावे को तथ्यात्मक रूप से गलत करार देते हैं। देश और दुनिया के अलग-अलग बौद्ध मठों समेत बौद्ध अवशेषों पर शोध कर चुके पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि मंदिर और बौद्ध मठों की बनावट और ढांचा पूरी तरह अलग होता है। इसलिए जब तक इमारत स्थल या सर्वे किए जाने वाली जगह पर ’मैटेरियल एविडेंस’ न हो तब तक इसे महज एक खोखला दावा ही माना जाएगा।
समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कुछ दिन पहले कहा था कि जब बात ज्ञानवापी की हो रही है, तो उन मंदिरों के बारे में भी बात की जानी चाहिए, जो पहले बौद्ध मठ हुआ करते थे। स्वामी प्रसाद मौर्या का दावा हैं कि बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे मंदिर भी पहले बौद्ध मठ हुआ करते थे। मौर्या कहते हैं कि इतिहास को खंगालिए तो पता चलेगा कि जितने भी हिंदू तीर्थस्थल हैं, वहां पहले कभी बौद्ध मठ हुआ करता था। हालांकि उन्होंने इन सभी मंदिरों की और तीर्थ स्थलों की सूची और जानकारी तो नहीं साझा की, लेकिन उन्होंने कहा कि एएसआई को इस मामले की जांच करनी चाहिए, अगर मस्जिद से पहले मंदिर थी तो मंदिर से पहले वहां पर क्या था। हालांकि मौर्या का कहना है कि 15 अगस्त 1947 से पहले की यथास्थिति को भी बहाल रखा जाए, तभी अमन चैन बना रहेगा। वह कहते हैं कि जिन मंदिरों का जिक्र किया है उसके बारे में तो लिखा हुआ है कि आखिरी शताब्दी तक वह बौद्ध मठ था जिसको बाद में शंकराचार्य ने बद्रीनाथ धाम बना दिया।
बौद्ध मठ और मंदिर का ‘स्ट्रक्चर’ ही पूरा अलग है
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के आर्कियोलॉजिकल प्रोफेसर मानवेंद्र पुंडीर कहते हैं कि देश के लगभग 1500 से ज्यादा ऐसे ही भवनों और संरक्षित इमारतों के सर्वे के दौरान पता चलता है कि अलग-अलग धर्मों के पूजा स्थलों या इबादतगाहों का आर्किटेक्चर पूरी तरीके से भिन्न होता है। वह कहते हैं कि जहां पर बौद्ध धर्म के अनुयायी मेडिटेशन करते हैं या विश्राम करते हैं, उन्हें ’बिहाराज’ और ’चैत्याज’ कहा जाता है। पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर मानवेंद्र के मुताबिक बौद्ध धर्म के अनुयायियों के मेडिटेशन सेंटर जिसको ’चैत्याज’ कहते हैं, वहीं पर पूजा भी होती थी। उनका कहना है कि इसकी बनावट मंदिर के स्ट्रक्चर से पूरी तरह भिन्न होता है। जबकि विश्रामगृह की तरह ’बिहाराज’ को बौद्ध धर्म के अनुयायी सैकड़ों साल से पूजा घर और नियमित विश्राम के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इसका भी स्ट्रक्चर मंदिर की तरह बिलकुल नहीं होता है। उनका कहना है अगर इस तरह से किसी भी धार्मिक स्थल पर विवाद की स्थिति बनती है तो उसके लिए सबसे पहले ’मैटेरियल एविडेंस’ तलाशने पड़ते हैं।
बद्रीनाथ और केदारनाथ में नहीं मिले ’मैटेरियल एविडेंस’
प्रमुख पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकार प्रोफेसर मानवेंद्र पुंडीर कहते हैं कि जिन दो प्रमुख मंदिरों को लेकर सियासी तौर पर उनको मठ कहे जाने का विवाद हुआ है, दरअसल वहां पर अब तक ऐसे कोई भी ’मैटेरियल एविडेंस’ नहीं मिले हैं, जो यह साबित करते हों कि बद्रीनाथ और केदारनाथ पहले मठ हुआ करते थे। उनका कहना है कि दोनों मंदिरों के स्ट्रक्चर और बौद्ध धर्म के ’बिहाराज’ और ’चैत्याज’ की बनावट पूरी तरह अलग है। वह कहते हैं मंदिर में जहां गर्भगृह और मंडप के साथ अर्ध मंडप होता है। वहीं बुद्ध धर्म के अनुयायियों के मेडिटेशन सेंटर पूजा घर और विश्राम स्थल का स्ट्रक्चर बिल्कुल अलग होता है। बौद्ध धर्म के बिहाराज की बनावट में बीच में कोर्टयार्ड की तरह एक खाली जगह होती है। फिर उसके चारों ओर एक हॉलनुमा जगह होती है। उस हॉलनुमा जगह के पीछे कमरे होते हैं। जबकि चैत्याज तीन हिस्सों के साथ मिलकर बना होता है। इसमें एक छोटा सा स्तूप होता है। उसके सामने ही एक बहुत बड़ा हॉल होता है। जहां बैठकर स्तूप की ओर मुंह करके मैडिटेशन किया जाता था। प्रोफेसर पुंडीर कहते हैं कि जिन मंदिरों को लेकर विवाद शुरू हुआ है, उनमें ऐसा कोई भी बनावट सामने नहीं आई है, जो बताती हो कि यह मंदिर कभी बौद्ध धर्म के मठ जैसे रहे होंगे। इन दोनों मंदिरों के आसपास सैकड़ों वर्षों में कोई भी मैटेरियल एविडेंस भी नहीं मिले हैं।
लेह लद्दाख में हुए सर्वे से पता चली है यह बात
आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से जुड़े रहे प्रमुख वैज्ञानिक प्रोफेसर ओपी चंदेल कहते हैं कि लेह लद्दाख में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के स्तूप से लेकर बुद्ध धर्म अवशेषों का अध्ययन किया गया है। अध्ययन के दौरान पता चलता है कि इस धर्म के लोग शुरुआत से ही चैत्याज में मेडिटेशन करते थे। वह कहते हैं कि लेह लद्दाख उनकी ओर से किए गए सर्वे में इस बात के प्रमाण मिले हैं कि बौद्ध धर्म के अनुयायियों के जो मेडिटेशन सेंटर हैं, वह मंदिरों के बने हुए स्ट्रक्चर से भिन्न होते थे। पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर मानवेंद्र पुंडीर कहते हैं कि क्योंकि चैत्यास में शुरुआती दौर में बैठने की व्यवस्था बहुत बड़े स्तर पर नहीं होती थी, इसलिए यह छोटे हुआ करते थे। हालांकि बिहाराज भी चैत्याज के पास में ही होते थे। इसलिए धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के अनुयायियों की बढ़ती हुई संख्या के लिहाज से बिहाराज में भी मेडिटेशन और ध्यान केंद्र में लोग बैठने लगे। हालांकि वह कहते हैं कि पुराने शोध पत्रों और जानकारियों के मुताबिक बिहाराज और चैत्याज में सैकड़ों वर्षों से बौद्ध धर्म के अनुयायी मेडिटेशन करते आ रहे हैं, जिनका स्ट्रक्चर मंदिरों से ने सिर्फ भिन्न है बल्कि उसकी तरह की बनावट भी नहीं है।
दूसरी तरफ जाने माने इतिहासकार डीएन झा की राय इन इतिहासकारों से एकदम अलग है। उनकी लिखी पुस्तकें भारत समेत अनेक देशों में पाठ्य पुस्तकों के रूप में पढाई जाती हैं। यदि उनकी पुस्तकों को आधार मानें, तो कह सकते हैं कि भारत में भी ऐसे कई मंदिर हैं, जिनका निर्माण बौद्ध स्तूपों को तोड़कर किया गया है।
प्राचीन इतिहास के विद्वान डीएन झा ने अपनी पुस्तक ’अगेंस्ट द ग्रेनः नोट्स ऑन आइडेंटिटी, इन्टॉलरेंस एंड हिस्ट्री’ में लिखा है कि मथुरा के भूतेश्वर और गोकर्णेश्वर मंदिर बौद्ध धर्म के स्तूपों-मठों को तोड़कर बनाए गए हैं। यूपी के सुल्तानपुर में ही 49 स्तूपों के ध्वंस किए जाने के प्रमाण मिलते हैं।
झा के अनुसार, अशोक को बौद्ध धर्म को पूरी दुनिया में फैलाने के लिए जाना जाता है, लेकिन कुछ एतिहासिक स्रोत इस तरफ इशारा करते हैं कि उनका एक पुत्र जालौक भगवान शिव की उपासना करने वाला था। सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद या उनके जीवनकाल के अंतिम समय में ही उनके पुत्र ने अनेक बौद्ध स्तूपों-मठों का विध्वंस कर दिया था। 12वीं शताब्दी में लिखी गई कल्हण की राजतरंगिणी के आधार पर डीएन झा कहते हैं कि जालौका ने अनेक बौद्ध स्तूपों को नष्ट किया था।
बौद्ध धर्म ग्रंथ ’दिव्यावदान’ में पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध स्तूपों का ’हंता’ करार दिया गया है। यह उपाधि उसे केवल तभी मिल सकती थी, जब उसने अपने जीवन काल में बौद्ध मठों-स्तूपों का विध्वंस किया हो। ऐसे में माना जा सकता है कि पुष्यमित्र शुंग के काल में अनेकों बौद्ध धर्म की इमारतों को ध्वस्त किया गया होगा।
सांची अपने समय में बौद्ध धर्म का बड़ा केंद्र था। आज भी सांची में बौद्ध धर्म के स्तूपों के भग्नावशेष मिलते हैं। सांची के स्तूपों के भग्नावशेषों के अध्ययन से भी इस बात की संभावना स्पष्ट होती है कि अशोक के काल के बाद में यहां बौद्ध धर्म के मठों-स्तूपों को नुकसान पहुंचाया गया था।
डीएन झा का कहना है कि विदिशा के आसपास के इलाकों में कुछ मंदिरों को देखने से लगता है कि उनका निर्माण बौद्ध स्तूपों का विध्वंस करने के बाद किया गया था। खजुराहो के आसपास भी कई मंदिरों की बनावट, उसमें उपयोग की गई सामग्री के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि उनका निर्माण बौद्ध स्तूपों के ऊपर किया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत के माध्यम से उन्होंने कहा है कि मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध मठों को नष्ट कर दिया था।
कुछ विद्वान मानते हैं कि बौद्ध धर्म हिमालयी क्षेत्रों से होते हुए ही चीन के इलाकों तक पहुंचा था। इस दौरान केदारनाथ सहित कई क्षेत्रों में बौद्ध मठ स्थापित किए गए होंगे। बहुत संभावना है कि मौर्य काल के बाद जब पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल आया था, तब इन बौद्ध स्तूपों को तोड़कर मंदिर बना दिया गया हो। आज के समय में विश्व प्रसिद्ध हिंदुओं का तीर्थ स्थल केदारनाथ इनमें से एक हो सकता है।
हिमालयन गजेटियर के माध्यम से यह दावा किया जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इन बौद्ध मठों में पहुंचकर बौद्ध धर्मगुरुओं को शास्त्रार्थ में हरा दिया और उसके बाद उन्हें वहां से भगाकर हिंदू मंदिरों का निर्माण कराया।
’कोई प्रमाण नहीं’
हालांकि, कई इतिहासकारों ने डीएन झा के इन दावों को पूरी तरह ’झूठ’ करार दिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्रोफेसर कपिल कुमार ने अमर उजाला से कहा कि इतिहास में इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि बौद्ध स्तूपों-मठों को तोड़कर उन स्थानों पर मंदिरों का निर्माण किया गया। यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो भारतीय इतिहासकारों के द्वारा लिखे गए किसी न किसी ग्रंथ में इसका उल्लेख होता। किसी मंदिर में पुरातात्विक साक्ष्य भी यह प्रमाणित नहीं करते कि बौद्ध मठों को तोड़कर उनके स्थान पर मंदिर बनाया गया। बीबीसी द्वारा प्रसारित एक रिपोर्ट में बौद्ध स्टडीज के पूर्व प्रोफेसर केटीएस सराओ ने भी डीएन झा के दावों को ’पक्षपातपूर्ण’ और ’संदेहास्पद’ करार दिया है।
कपिल कुमार ने कहा कि राजनीतिक कारणों से इतिहास की मूल संकल्पनाओं को दूषित नहीं किया जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने जो आरोप लगाए हैं वह किसी साक्ष्य से प्रमाणित नहीं होते। जिस ज्ञानवापी को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है, वहां उसकी दीवारों पर अंकित तस्वीरें, देशी-विदेशी इतिहासकारों के लेखों और स्वयं मुगलकालीन इतिहासकारों के लिखे संदर्भों में भी ज्ञानवापी को तोड़ने की बात प्रमाणित होती है।
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