“चुनौतियों का श्रृंगार (लघुकथा)”

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September 8, 2024

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“चुनौतियों का श्रृंगार (लघुकथा)”

डॉ. रीना रवि मालपानी (कवयित्री एवं लेखिका)

रामजानकी को भी भगवान ने विरासत में चुनौतियों के श्रृंगार से सुशोभित किया। जन्म के पश्चात् उसे कई प्रकार की शारीरिक बीमारियों ने घेर रखा था। कहते है लड़की की सुंदरता थोड़ी ठीक-ठाक होनी चाहिए, पर भगवान ने शायद सृजन के समय इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। अनेकों दाग-धब्बे चेहरे को कांतिहीन करने में लगे थे, पर रामजानकी अपनी माँ की दुलारी थी। माँ के स्नेह और प्रेम में रामजानकी को कहीं भी थोड़ी से भी न्यूनता परिलक्षित नहीं हुई, इसके विपरीत पिता का रवैय्या सोच से भी परे था। पिता आशिक मिजाज वाले व्यक्ति थे। पत्नी की सुंदरता तो उन्हें शुरू से ही प्रिय नहीं थी तो फिर बेटी तो उन्हें बोझ का ही भद्दा स्वरूप लगती थी।
        पिता शायद भाग्य के धनी व्यक्ति थे, पत्नी का देहांत जल्दी हो गया और आवारागर्दी की लगाम को और भी छुट मिल गई। अब तो आशिक़ी पर नया नूर सा चढ़ गया। इधर माँ के देहांत के बाद बेटी और भी अकेली हो गई। पहले माँ थी तो माँ के किसी कोने में खुद को रानी समझती थी। कुछ समय के लिए ही सही मन में प्रसन्नता के भाव तो थे। माँ के बाद घर की पूरी ज़िम्मेदारी रामजानकी पर आ गई। इसी ज़िम्मेदारी के साथ उसने शिक्षारत होने का संकल्प लिया, क्योंकि भविष्य के लिए पिता पर आश्रित होना उसे हितकर नहीं लग रहा था। इधर पिता का आशिक़ाना स्वभाव एक विधवा के साथ चक्कर में लग गया। बहुत वाद-विवाद, अपयश और बदनामी के बाद विवाह तक पहुँच गया। नई माँ भी आ गई फिर एक नई चुनौती पैर पसारे खड़े थी, पर इस चुनौती का श्रृंगार उसने अपनी नौकरी से किया। नई माँ के साथ रोज-रोज की चिक-चिक उसे अलग रहकर कुछ नवीन और बेहतर करने को प्रेरित कर रही थी और उसने वही किया। सिर्फ माँ की यादों का साया ही उसके साथ था। उसने माँ की याद में स्कूल खोलने, पुस्तक वितरित करने, कुएं खुदवाने, अस्पतालों में जरूरत का सामान वितरित करने का निर्णय लिया। उसने अपनी चुनौतियों से लड़कर दूसरे के जीवन को श्रृंगारित करने का लक्ष्य बनाया। वह परिस्थितियों के कारण इतनी मजबूत बन चुकी थी कि उसने सब कुछ अनुभव किया था। दिल का टूटना, अपनों का रूठना, इसके बावजूद भी उसने यह सीख लिया था कि सब कुछ ठीक है और सब कुछ अच्छा ही होगा। वह पूर्णतया आत्मविश्वास से परिपूरित थी।
        इस लघु कथा से यह शिक्षा मिलती है कि कभी-कभी निष्ठुर चुनौतियाँ भी जीवन को सत्य से श्रृंगारित करने आती है, पर वह श्रृंगार, सोलह श्रृंगार जैसी स्त्री के तन की सुंदरता को नहीं बढ़ता बल्कि संघर्ष की सुंदरता से दूसरों के जीवन के एक छोटे से कोने में आशा और उत्साह का दीप जला सकता है। मन के अंतर्द्वंद और अंतर्विरोध से लड़कर ही दुनिया को जीता जा सकता है। याद रखना अन्तर्मन की लड़ाई ही असली जीत सुनिश्चित कर सकती है और चुनौतियों वाला श्रृंगार जीवन में निर्वहन के लिए निर्णायक भूमिका तैयार कर देता है।

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