कृष्ण भक्त संत मीराबाई के जन्मोत्सव पर विशेष-राजस्थान की राधा : मीरा बाई- सुरेश सिंह बैस शाश्वत

स्वामी,मुद्रक एवं प्रमुख संपादक

शिव कुमार यादव

वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजसेवी

संपादक

भावना शर्मा

पत्रकार एवं समाजसेवी

प्रबन्धक

Birendra Kumar

बिरेन्द्र कुमार

सामाजिक कार्यकर्ता एवं आईटी प्रबंधक

Categories

December 2024
M T W T F S S
 1
2345678
9101112131415
16171819202122
23242526272829
3031  
December 23, 2024

हर ख़बर पर हमारी पकड़

कृष्ण भक्त संत मीराबाई के जन्मोत्सव पर विशेष-राजस्थान की राधा : मीरा बाई- सुरेश सिंह बैस शाश्वत

स्तंभ/- मीराबाई का जन्म मारवाड़ के पाली के एक गांव कुड़की में लगभग 1498-1499 ईसवी में हुआ था। मीराबाई के पिता का नाम रतन सिंह था व इनके दादा का नाम राव दूदा था।‌ मीराबाई अपने पिता रतन सिंह की इकलौती पुत्री थी। मीराबाई जब बहुत छोटी थी तब ही उनकी मां का देहांत हो गया था। कम उम्र में मां का साया हट गया और पिता अपने काम में व्यस्त होने से उनके पास ज्यादा वक्त नहीं दे पाते थे। तभी से कुड़की से जाकर मेड़ता अपने दादा राव दूदा जी के पास रहने लगी। दूदा जी श्याम कृष्ण के बड़े भगत थे, और उनके आसपास हिंदू संस्कृति का वातावरण ही रहता था। उनके पिता रतन सिंह चाचा वीरमदेव और उनकी दादी सभी वैष्णव धर्म के अनुयाई थे। यदि परंपरागत कथानक में सत्यता को माना जाए, तो बताया जाता है कि मीरा में कृष्ण की प्रति निष्ठा अपनी दादी के द्वारा ही उत्पन्न हुई थी।
         कृष्ण भक्त कवियत्री व गायिका मीराबाई सोलवीं सदी के भारत के महान संतों में से एक थी। अपने अगाध एवं माधुर्य भाव कृष्ण भक्ति के कारण मीरा बाई काफी प्रसिद्ध हुई। इसलिए मीरा बाई को राजस्थान की राधा भी कहा जाता है। अगर इतिहास के पन्नों में हम भक्ति योग की खोज करे तो जैसा मीराबाई का चरित्र था, उनसे बढ़िया शायद ही कोई हमें उदाहरण देखने को मिले। दुर्भाग्यवस जिस मीरा के नाम में एक भक्ति प्रवाह का स्रोत दिखाई देता है।
         एक बार का प्रसंग बताया जाता है कि, एक बार बारात को देखकर बालिका मीरा ने पूछा कि दादी जी यह बारात किसकी है? तो उनको उत्तर मिला कि यह दूल्हे की बारात है। तुरंत ही मीरा ने दूसरा प्रश्न पूछा कि मेरा दूल्हा कहां है ? तो दादी ने कह दिया कि तुम्हारा दूल्हा तो गिरधर गोपाल है। माना जाता है कि तभी से मीरा गिरधर गोपाल की भक्ति में डूब गई थी और अपने गिरधर गोपाल को पाने के प्रयासों में लग गई थी। मीराबाई तथा उनके गुरु रैदास जी की कोई ज्यादा मुलाकात हुई हो इस बारे में कोई साक्ष्य प्रमाण नहीं मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि मीराबाई अपने गुरु रैदास जी से मिलने बनारस जाया करतीं थीं। संत रैदास जी से मीराबाई की मुलाकात बचपन में किसी धार्मिक कार्यक्रम में हुई थी। इसके साथ ही कुछ किताबों और विद्वानों के मुताबिक संत रैदास जी मीराबाई के अध्यात्मिक गुरु थे। मीराबाई जी ने अपनी की गई रचनाओं में संत रैदास जी को अपना गुरु बताया है। मीराबाई का विवाह राणा सांगा के सबसे बड़े बेटे भोजराज से लगभग 1516 (संवत् 1573) में हुआ था। दुर्भाग्यवश मीराबाई का वैवाहिक जीवन ज्यादा मधुर नहीं रहा। और विवाह के कुछ वर्ष (लगभग 5-6 वर्ष) बाद ही उनके पति भोजराज जी का देहांत हो गया। भोजराज की मृत्यु का वर्ष अलग-अलग इतिहासकार अलग-अलग बताते हैं। इसी प्रसंग में आपको बताते चलें कि मीराबाई छत्रिय वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की रिश्ते में ताई लगती थी। महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह के सबसे बड़े भाई भोजराज की पत्नी मीराबाई थीं। बताया जाता है कि जब भोजराज जी की मृत्यु हुई तब मीराबाई को भी सती होने के लिए कहा गया लेकिन ऐसा भी बताया जाता है कि सांगा ने मना कर दिया था उनके सती होने के लिए। पति की मृत्यु के कुछ समय बाद उनके दादा राव दूदा की मृत्यु हो गई । खानवा युद्ध 1527 के समय रतन सिंह जी वीरगति को प्राप्त हो गए थे। 1528 में महाराणा सांगा देहांत हो गया था। इन्हीं बरसों के बीच में उनके चाचा वीरमदेव को मालदेव से हार का सामना करना पड़ा था। माना जाता है कि मीरा के जीवन के यह वर्ष बहुत दुख भरे रहे थे। ना पिता के घर और ना पति के घर उन्हें कोई खास साथ देने वाला बचा रहा। सांगा की मृत्यु के बाद में उनके उत्तराधिकारी में गृहकलह आरंभ हो गया था।
         मेवाड़ राजपरिवार में मीराबाई की उस समय कुछ चलती भी नहीं थी बल्कि उनके स्वतंत्र विचारों से राणा उनके विरोधी हो गए थे। उस समय मेवाड़ के राणा विक्रमादित्य थे। बताया जाता है कि इसी समय के दौरान विक्रमादित्य ने मीराबाई को खाने में जहर देना, सांप से कटवाना, पानी में डूब मरने का प्रयास किया और उनके चरित्र पर भी राणा द्वारा संदेह किया गया। इन कथानकों को देखने से यही लगता है कि मीराबाई का रवैया एक राजपूत परिवार की स्त्री के रवैया से अलग था मीराबाई एक असाधारण महिला थी। जिसने एक दुख के बाद दूसरे बड़े दुखों का बड़े ही धैर्य से सहन किया। और अपने लिए अध्ययन मनन और सत्संग का मार्ग ढूंढ निकाला। पति के मृत्यु के बाद इनकी भक्ति दिनों-दिन बढ़ती गई। मीरा अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचती रहती थीं। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। मीराबाई की कृष्णभक्ति और इस प्रकार से नाचना और गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा जिसके वजह से कई बार उन्हें विष देकर मारने की कोशिश की गई। बताया जाता है कि मीरा ने विष का प्याला पी लिया था और यह विष का प्याला गिरधर की कृपा से अमृत में परिवर्तित हो गया था। कृष्ण भक्ति में लगी हुई मीरा के लिए शादी की यातनाएं और जीवन की सुविधाएं कोई महत्व नही रखती थी । उनका जीवन से मोह घटता गया और
         उनकी निष्ठा भक्ति भाव और संत सेवा की तीव्र गति से बढ़ती चली गई। कृष्ण के प्रेम के लिए वह किसी अन्य समझौते के लिए तैयार नहीं हो सकती थी। मेवाड़ में अपने भक्ति में लगे रहने के लिए वातावरण को सही ना समझ कर वह वृंदावन चली गई थी। जहां उनके लिए साधना का मार्ग एकदम एकदम सही था। वह एक दिन वृंदावन के संत रूप गोस्वामी से मिलने गई। गोस्वामी ने जो उच्च कोटि के संत थे उन्हें मिलने से इनकार कर दिया था। यह कहते हुए कि वे स्त्रियों से नहीं मिलते हैं। मीरा ने उनके जवाब में एक कहलावा भेजा कि क्या वृंदावन में भी पुरुष रहते हैं ? मीरा के लिए कोई पुरुष है तो सिर्फ और सिर्फ कृष्ण हैं। इस बात से रूप गोस्वामी बहुत प्रभावित हुए। और उसके बाद मीरा से मिलने के लिए तैयार हो गए। बताया जाता है कि मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह मीराबाई से वापस मेवाड़ आने के लिए आग्रह भी किया था और उनको लाने के लिए कुछ सैनिक भी भेजे थे। लेकिन मीराबाई ने वापस आने के लिए इंकार कर दिया था। उदय सिंह का मानना था की मीराबाई के मेवाड़ छोड़ देने के बाद ही उनके राज्य पर एक के बाद एक संकट आते गए। कहा जाता है कि बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं जहाँ द्वारिका में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं।
         वैसे तो मीरा को लेकर बहुत से कवियों ने अनेक कविताओं की रचना कर दी। परंतु जो भावनाएं उसमें मिलती है वह सभी मीरा की सच्ची भावनाओं की ही प्रतीक है। आज भी ’मीरा दासी संप्रदाय’ अनेक भक्तों द्वारा अपनाया जा रहा है। और उसके अनुसरण करने वालों की संख्या राजस्थान में बहुत है। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। इस बीच बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा का युद्ध उसी समय हुआ था। इन सभी परिस्थितियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य बनी। मीरा जिन पदों को गाती थीं तथा भाव-विभोर होकर नृत्य करती थीं, वे ही गेय पद उनकी रचना कहलाए। ’नरसीजी का मायरा’, ’राग गोविन्द’, ’राग सोरठ के पद’, ’गीतगोविन्द की टीका’, ’मीराबाई की मल्हार’, ’राग विहाग’ एवं फुटकर पद, तथा गरवा गीत’ आदि मीरा की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
         मीरा की फुटकल रचनाओं और पदों का संग्रह “मीराबाई की पदावली“ नाम से किया गया है। मीरा की गरबी, मलार राग, नरसिंह मेडता की हुंडी, सुधा-सिन्धु आदि प्रमुख भाग हैं।
         मीराबाई के काव्य में उनके हृदय की सरलता, तरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। मीराबाई ने गीति काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्णभक्त कवियों की परम्परागत पदशैली को अपनाया। मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बँधे हुए हैं। उनके गीतों में उनकी आवेशपूर्ण आत्माभिव्यक्ति मिलती है। प्रियतम के समक्ष आत्मसमर्पण की भावना तथा तन्मयता ने उनके काव्य को मार्मिक तथा प्रभावोत्पादक बना दिया है। कृष्ण के प्रति प्रेमभाव की व्यंजना ही मीराबाई की कविता का उद्देश्य रहा है। मीरा जीवन-भर कृष्ण की वियोगिनी बनी रहीं ।
          उनके काव्य में हृदय की आवेशपूर्ण विह्वलता देखने को मिलती है। मीरा की काव्य-भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा के निकट है तथा उस पर राजस्थानी, गुजराती, पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उनकी काव्य-भाषा अत्यन्त मधुर, सरस और प्रभावपूर्ण है। पाण्डित्य-प्रदर्शन करना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा। कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम ने ही उन्हें कृष्णकाव्य के समुन्नत स्थल तक पहुँचाया।इनकी रचनाओं में श्रंगार रस का प्रयोग प्रमुखता से किया गया है। इन्होंने वियोग श्रंगार तथा कहीं-कहीं शांत रस का भी प्रयोग किया है। इनके गेय पदों में कई रागों एवं छंदों का प्रयोग किया गया है पाण्डित्य-प्रदर्शन करना मीराबाई का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा । कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम ने ही उन्हें कृष्णकाव्य के समुन्नत स्थल तक पहुँचाया। मीराबाई के काव्य में उनके हृदय की सरलता, तरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। मीराबाई की पदावली आज भी जगत प्रसिद्ध हैं। जिनमें भक्ति, श्रृंगार और समर्पण की मधुर भावना निश्चल रूप से दिखाई देती है …..

“बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल, अरुण तिलक दिए भाल।
मोहन मूरति साँवरि सूरति, नैना बने बिसाल।
अधर-सुधा रस मुरली राजत, उर बैजंती माल ॥
छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल। मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल… ॥

पायो जी म्हैने तो राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।
जनम जनम की पूँजी पायी, जग में सभी खोवायो।
खरचैं नहिं कोई चोरं न लेवै, दिनदिन बढ़त सवायो।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो। पायोजी मैंने राम रतन धन पायो…।।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख- हरख जस गायो…॥

About Post Author

Subscribe to get news in your inbox