गाजीपुर/शिव कुमार यादव/- नुसरत अंसारी की चुनावी प्रचार शैली के चलते गाजीपुर सीट पूरे देश में चर्चा के केंद्र में आ गई है। देश में विपक्ष के सनातन विरोध को धत्ता बताते हुए नुसरत अंसारी गाजीपुर में मंदिरों व शिवालयों में माथा टेकती नजर आ रही हैं। हालांकि वह अपने पिता अफजाल अंसारी के लिए चुनाव प्रचार कर रही हैं लेकिन अटकलें यह भी लगाई जा रही है कि अगर परिस्थितियां विपरीत बनी और कोर्ट ने अफजाल अंसारी को चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया तो वह पिता की जगह चुनाव भी लड़ सकती हैं। पिछले 10 सालों से नुसरत एक दास्तानगो के तौर पर भी सक्रिय हैं। लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद पुणे के टिस से पढ़ाई करने वाली नुसरत एनएसडी से भी जुड़ी हैं।
गाजीपुर की राजनीति में नुसरत अंसारी चर्चा के केंद्र में आ गई हैं। वह सांसद अफजाल अंसारी की सबसे बड़ी बेटी हैं। वह बाहुबली मुख्तार अंसारी की भतीजी हैं। पिता अफजाल के चुनाव प्रचार में शिवालय में माथा टेकती और मंदिर में कीर्तन में शामिल होती नजर आ रहीं। नुसरत के इसी अंदाज ने विरोधियों को भी पस्त कर दिया है और आने वाले समय में नफरत के खिलाफ एक नई इजारत लिख दी है। नुसरत ने अपनी ग्रेजुएशन दिल्ली के नामचीन लेडी श्रीराम कॉलेज से किया है। उन्होंने 2014 में अपना ग्रेजुएशन पूरा किया है। नुसरत ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) से डेवलपमेन्ट प्लानिंग में पढ़ाई की है। उन्हें यह पाठ्यक्रम 2017 में पूरा किया है। पिछले 10 सालों से नुसरत एक दास्तानगो के तौर पर भी सक्रिय हैं। इसको लेकर उन्होंने कई संस्थानों और स्कूलों के साथ कार्यशाला आयोजित की है। वह नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) और अशोक यूनिवर्सिटी के साथ भी जुड़ी हुई हैं। वह सबसे कम उम्र की दास्तानगो (दास्तान सुनाने वाले) बताई जाती हैं।
मंदिर में माथा टेक रहीं नुसरत
गाजीपुर से अपने पिता अफजाल अंसारी के प्रचार में उनकी बेटी भी उतर आई हैं। अफजाल की बेटी नुसरत की एक तस्वीर खासी चर्चा में है, जिसमें वह शिवालय में पूजा करती दिख रही हैं। इन सब के बीच अफजाल के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर नुसरत को देखा जा रहा है। यह भी माना जा रहा है कि चुनाव लड़ने के लिए कोर्ट की तरफ से अयोग्य ठहराए जाने की सूरत में नुसरत मैदान में उतर सकती हैं।
क्या होती है दास्तानगोई?
दास्तानगोई किस्सा कहानी कहने की एक कला है। इस फन की शुरुआत ईरान से आठवीं-नौवीं शताब्दी से मानी जाती है। एक हजार साल पहले अरबी नायक अमीर हम्जा के शौर्य और साहसिक कार्यों को दास्तान के रूप में सुनाने से शुरू हुई। दास्तानगो की कही कहानियां सबसे अधिक लोकप्रिय तब हुई जब ये उर्दू भाषा का हिस्सा बनीं।
मुगल काल में दास्तानगोई ने पहली बार हिन्दुस्तान में पैर जमाने शुरू किए। यह कला 19वीं शताब्दी में उत्तर भारत में अपने चरम पर पहुंची। भारत में मुगल काल के दौरान इस कला को नई ऊंचाई मिली। अपने दरबार में दास्तानगो रखने और इस कला को लोकप्रिय बनाने के लिए बादशाह अकबर का कार्यकाल बेहद मशहूर रहा है।
महमूद फारूकी ने 2005 में फिर शुरू की
भारत के आखिरी मशहूर पेशेवर दास्तानगो मीर बाकर अली थे, जिनका देहांत 1928 में दिल्ली में हुआ था। इसके बाद हिन्दुस्तान में दास्तान सुनाने की परंपरा एकदम खत्म हो गई। 2005 में महमूद फारूकी ने उर्दू आलोचक शम्सुररहमान फारूकी से प्रेरणा लेकर फिर से दास्तानगोई शुरू की और इस तरह हिन्दुस्तान में जदीद (आधुनिक) दास्तानगोई का आगाज हुआ। बाद में बहुत से दूसरे लोग भी इससे जुड़े। इसी वजह से पूरी दुनिया में आज भी ये दास्तानें कम से कम कागज पर तो सुरक्षित हैं। जब मौखिक तौर पर दास्तान कहने का चलन शबाब पर था तब दुनिया भर में मशहूर मुंशी नवल किशोर ने इसे पहली बार किताब की शक्ल में छपवाने का इरादा किया।
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