नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/भावना शर्मा/- देश में एक तरफ कोरोना का तांडव बढ़ता ही जा रहा है वहीं दूसरी तरफ पांच राज्यों में होने वाले चुनाव पर भी घमासान मचा हुआ है। चुनावों को लेकर रोजाना लोग सवाल दाग रहे है तो वहीं चुनाव आयोग भी हर स्थिति पर कड़ी नजर रखे हुए है। कोरोना के चलते चुनाव हो या ना हो एक बड़ा प्रश्न बना हुआ है। ऐसे में पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का कहना है कि कोविड गाइडलाइन फॉलो हो तो चुनाव करवाने में कोई दिक्कत नही होनी चाहिए। बस बड़ी रैलियों और पब्लिक मीटिंग पर रोक लगानी होगी।
श्री कुरैशी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा कि कोरोना के बीच दुनिया के 100 देशों में चुनाव हुए है। भारत में भी बिहार, पश्चिमी बंगाल व केरल समेत तमाम राज्यों में कोरोना के बीच चुनाव हुए है। हमें सिर्फ चुनाव आयोग ने जो गाइडलाइन जारी की है उसका पालन करना है। अब लोग कोरोना के बीच मार्केट भी जा रहे है। सभी दैनिक गतिविधियां भी चल रही है। तो फिर चुनाव पर ही हल्ला क्यो, हम कोरोना के सभी नियमों का पालन करते हुए चुनाव क्यो नही करवा सकते, अगर कोरोना से बचाव के सारे नियम फॉलों किये जाये तो चुनाव कराने में कोई दिक्कत नही होनी चाहिए। बस सिर्फ बड़ी रैलियों व जनसंपर्क से जुड़ी मीटिंगों को रोकना होगा। वोटिंग के दूसरे तरीके भी हैं, जैसे ऑनलाइन वोटिंग, लेकिन यह अभी भारत में संभव नजर नहीं आता, क्योंकि हमारे यहां तो अभी तक म्टड पर ही सवाल खड़े होते रहे हैं। ऐसे में ऑनलाइन वोटिंग तो किसी हाल में संभव नहीं है।
श्री कुरैशी का कहना है कि, पहले राजनीतिक पार्टियों को 20 हजार रुपए से ऊपर के ट्रांजेक्शन का हिसाब चुनाव आयोग को देना होता था, लेकिन 2017 के बाद से 20 हजार करोड़ का अमाउंट भी हो तो उसका हिसाब नहीं देना होता। ऐसा इलेक्टोरल बॉन्ड के चलते हुआ है, अब ट्रांसपेरेंसी पहले से भी ज्यादा कम हो गई। हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।
उन्होने कहा कि यह कहना गलत है। आचार संहिता लगने के पहले सभी को प्रचार-प्रसार करने का फ्रीडम होता है। अब जिस पार्टी के पास ज्यादा संसाधन और बड़ा संगठन है, वो ज्यादा प्रचार कर पाती हैं। ऐसे में आरोप लगाने के बजाय विपक्षी पार्टियों को खुद इतनी ताकत पैदा करना चाहिए कि वो दूसरी पार्टी को टक्कर दे पाएं। ज्यादा रैलियां करने पर किसी पार्टी को कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। चुनाव के पहले यह अंदाजा सभी को होता है कि, चुनाव की तारीखें क्या हो सकती हैं। मैंने हफ्ते भर पहले एक आर्टिकल लिखा था। उसमें अपने कॉमन सेंस से जो शेड्यूल बताया था, लगभग वही आयोग ने जारी किया। कोई भी व्यक्ति कॉमन सेंस के जरिए इसका अंदाजा लगा सकता है। इसमें कोई सरप्राइज वाली बात नहीं।
उन्होने आम आदमी को एक-एक रुपए का हिसाब सरकार को देना होता है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां इलेक्टोरल बॉन्ड का पूरा हिसाब जनता को नहीं देतीं? इस सवाल के जवाब में कहा कि यह बहुत ठीक सवाल है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि इलेक्टोरल बॉन्ड बहुत बड़ा डिजास्टर हैं। साल 2017 में बजट स्पीच के जरिए इसे पेश किया गया था। तब तत्कालीन वित्त मंत्रीजी की स्पीच सुनकर हमें लग रहा था कि, कोई बड़ा सुधार होने वाला है, लेकिन इस बॉन्ड ने तो जो ट्रांसपेरेंसी पहले थी, उसे भी खत्म कर दिया। पहले 20 हजार रुपए से ज्यादा के ट्रांजेक्शन राजनीतिक पार्टियों को आयोग हिसाब देना होता था, अब 20 हजार करोड़ का अमाउंट हो तब भी हिसाब देने की जरूरत नहीं। सुप्रीम कोर्ट में भी इस मामले में कोर्ट पेंडिंग है। कोर्ट इसे लेकर इतना नॉन सीरियस क्यों है, ये ताज्जुब की बात है।
उन्होने आचार संहिता के पहले ही तमाम घोषणाएं कर दी जाती हैं, ऐसे में क्या वाकई आचार संहिता का कुछ खास असर रह जाता है? के जवाब में कहा कि हर पार्टी को घोषणाएं करने का अधिकार है। मैनिफेस्टो तो आचार संहिता के बाद ही जारी होता है। इसमें सिर्फ ये जरूरी है कि पार्टियां जिम्मेदारी लें। जो घोषणाएं आप चुनाव के पहले कर रहे हैं, उन्हें बाद में पूरा किया जाना चाहिए। वोटर, मीडिया और विपक्षी पार्टियां ज्यादा अच्छे से यह रोल निभा सकती हैं। लोग इस काम की अपेक्षा भी आयोग से करते हैं, जबकि यह काम चुनाव आयोग का नहीं होता।
उन्होने. वोटर आईडी को आधार कार्ड से लिंक करना होगा, यह कदम कितना सही है, इससे क्या फर्क पड़ेगा? के जवाब में कहा कि ये बिल्कुल सही कदम है। मेरे वक्त में ही ये प्रॉसेस शुरू हुई थी। इससे डुप्लीकेसी को रोकने में मदद मिलेगी। आधार से वोटर कार्ड को लिंक करने के बाद हम वोटर को आइडेंटिफाई कर सकेंगे। हालांकि इससे जुड़े कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इसलिए इसका एक बार एग्जामिन करना चाहिए और लोगों की क्वेरीज को खत्म करना चाहिए। विपक्षी पार्टियां और आम लोगों के मन में जो डाउट हैं, उन्हें खत्म किया जाना चाहिए।
उन्होने बीजेपी एक देश, एक चुनाव की बात कहती रही है, इस बारे में आपकी क्या राय है। क्या भारत में यह संभव है और ऐसा किया जाना चाहिए या नहीं?के जवाब में कहा कि संघवाद में ये संभव नहीं है। मान लीजिए किसी राज्य की सरकार गिर जाती है, तो क्या फिर दोबारा सब जगह चुनाव करवाएं जाएंगे। या लोकसभा में सरकार गिर जाती है तो फिर पूरे देश में चुनाव होंगे। यह संभव नहीं है। इसके बजाय वो करना चाहिए जो संभव है। सरकार को कैंडीडेट्स के खर्चे की तरह राजनीतिक पार्टियों के खर्चे की लिमिट तय करना चाहिए। हमने बहुत सारी चीजें इंग्लैंड से ली हैं, वहां ऐसा ही होता है। यदि खर्चे की लिमिट तय होती है तो काफी पैसा बचेगा और धांधली पर भी कहीं न कहीं लगाम लगेगी। सरकार चाहे तो यह नियम लागू कर सकती है।
अंत में उन्होने क्या चुनावी राज्यों में सभी लोगों को अनिवार्य तौर पर फुली वैक्सीनेटेड किया जाना चाहिए? इसके बाद ही चुनाव होना चाहिए? के जवाब में कहा कि नहीं ऐसा करना वोटर पर ज्यादती करने जैसा होगा। कई जगह सरकारें दोनों डोज नहीं लगा पा रही हैं। ये कोशिश जरूर होना चाहिए कि जल्द से जल्द सभी लोगों को वैक्सीन के दोनों डोज लगें और कोविड प्रोटोकॉल का पूरी सख्ती और ईमानदारी से पालन हो।


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