ज्ञानवापी का सच आयेगा सामने, इलाहबाद हाईकोर्ट ने सर्वे जारी रखने की दी अनुमति

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ज्ञानवापी का सच आयेगा सामने, इलाहबाद हाईकोर्ट ने सर्वे जारी रखने की दी अनुमति

-ज्ञानवापी मामले में हाईकोर्ट से मिला मुस्लिम पक्ष को झटका, 32 साल से अदालतों में चल रहा है केस

प्रयागराज/– इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब ज्ञानवापी का सच सामने आने की उम्मीद काफी बढ़ गई है। गुरूवार को हाईकोर्ट ने अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी की याचिका को खारिज करते हुए ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का एएसआई सर्वे जारी रखने के आदेश दिये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सर्वे करने की अनुमति दे दी है। हाईकोर्ट के इस फैसले से मुस्लिम पक्ष को बड़ा झटका लगा है। क्योंकि इस एएसआई के सर्वे से ही 350 साल पुरानी ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास सामने आएगा।
                 दरअसल, 21 जुलाई को वाराणसी जिला जज ने ज्ञानवापी के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) सर्वे का आदेश दिया था। इस पर मुस्लिम पक्ष ने पहले सुप्रीम कोर्ट फिर हाईकोर्ट में सर्वे के फैसले को चुनौती दी। अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की इस याचिका को खारिज कर दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि न्यायहित में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का सर्वे जरूरी है। कुछ शर्तों के साथ इसे लागू करने की जरूरत है।

पिछले दिनों वाराणसी जिला जज एके विश्वेश ने मस्जिद परिसर का वैज्ञानिक सर्वे कराने का आदेश जारी किया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को चार अगस्त तक सर्वे की रिपोर्ट वाराणसी कोर्ट को सौंपनी थी। जिला अदालत के आदेश के बाद एएसआई की टीम सोमवार को ज्ञानवापी परिसर का सर्वे करने पहुंची थी। लेकिन मुस्लिम पक्ष ने सर्वे का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
                इस पर सुप्रीम कोर्ट ने एएसआई सर्वे पर दो दिन के लिए रोक लगाते हुए मस्जिद कमेटी को इलाहाबाद हाईकोर्ट जाने के लिए कहा था। इसके बाद मुस्लिम पक्ष हाईकोर्ट पहुंचा। अब सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की याचिका को खारिज कर दिया है।
                कोर्ट में दलील देते हुए मुस्लिम पक्ष के वकील एसएफए नकवी ने असामयिक अदालती आदेश के जरिये ज्ञानवापी के वैज्ञानिक सर्वेक्षण से ज्ञानवापी के मूल ढांचे को नुकसान पहुंचनें की आशंका जताई थी। उन्होंने यह भी कहा था कि अयोध्या के बाबरी मामले का दंश देश ने झेला है। सिविल वाद में पोषणीयता का बिंदु तय किये बिना जल्दबाजी में सर्वेक्षण और खुदाई का फैसला घातक हो सकता है। हालांकि एएसआई ने मुस्लिम पक्ष की दलील को सिरे से खारिज करते हुए कहा था कि सर्वेक्षण के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक से ज्ञानवापी की मूल संरचना को खरोंच तक नहीं आयेगी। जबकि, हिंदू पक्ष के वकील विष्णु शंकर जैन और सौरभ तिवारी का कहना था कि वैज्ञानिक सर्वेक्षण के जरिए ही वो ज्ञानवापी की सच्चाई सामने लाना चाहते है।
                 सुनवाई के दौरान कोर्ट में मौजूद रहे प्रदेश के महाधिवक्ता अजय कुमार मिश्र ने कहा था कि याचिका में राज्य सरकार पक्षकार तो नहीं हैं, लेकिन सर्वेक्षण होने की दशा में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी संभालने को राज्य सरकार तैयार है।

ज्ञानवापी को लेकर हाईकोर्ट में नई याचिका दायर
उधर, ज्ञानवापी मामले को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में बुधवार को एक जनहित याचिका दाखिल की गई है। इसमें शृंगार गौरी की नियमित पूजा की अनुमति दिए जाने की मांग की गई है। हालांकि, वाराणसी कोर्ट में इस मामले का पहले से वाद चल रहा है। एएसआई सर्वे पर चीफ जस्टिस की बेंच के फैसले के एक दिन पहले यह याचिका दायर की गई।
                जनहित याचिका में ज्ञानवापी परिसर में मिले हिंदुओं के प्रतीक चिह्नों को संरक्षित किए जाने और गैर हिंदुओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाए जाने की हाईकोर्ट से अपील की गई है। जनहित याचिका में कहा गया है कि शृंगार गौरी केस में जब तक वाराणसी की अदालत का फैसला नहीं आ जाता तब तक परिसर में गैर हिंदुओं का प्रवेश प्रतिबंधित किया जाए।
                कोर्ट से यह भी मांग की गई है कि इस तरह की व्यवस्था की जाए जिसने ज्ञानवापी में एएसआई सर्वेक्षण का काम प्रभावित न हो। याचियों ने जनहित याचिका अपने अधिवक्ता के माध्यम से इलाहाबाद हाईकोर्ट में रजिस्ट्री में दाखिल की है। इस याचिका पर सुनवाई चीफ जस्टिस की बेंच में अगले सप्ताह होने की उम्मीद है।

साल 1991 से शुरू हुई ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर कानूनी लड़ाई
यहां यह भी बता दें कि 32 साल से यह मामला कोर्ट में चल रहा है। काशी विश्वनाथ ज्ञानवापी परिसर को लेकर दोनो पक्ष न्याय की आस में 1991 से कोर्ट में केस लड़ है। सन् 1991 में वाराणसी कोर्ट में काशी विश्वनाथ ज्ञानवापी मामले में पहला मुकदमा दाखिल हुआ था। याचिका में ज्ञानवापी परिसर में पूजा की अनुमति मांगी गई। प्राचीन मूर्ति स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर की ओर से सोमनाथ व्यास, रामरंग शर्मा और हरिहर पांडेय बतौर वादी इसमें शामिल हैं। मुकदमा दाखिल होने के कुछ महीने बाद सितंबर 1991 में केंद्र सरकार ने पूजा स्थल कानून बना दिया। ये कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है।

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