अफगान सेना का तालिबानी कनेक्शन, कहीं अफगान सेना में तालिबानी तो नही बने थे सैनिक

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October 3, 2024

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अफगान सेना का तालिबानी कनेक्शन, कहीं अफगान सेना में तालिबानी तो नही बने थे सैनिक

-लड़ाई के दौरान जनरल को बदलना कर रहा इस ओर इशारा, विश्व में अफगान समस्या पर हो रही बड़ी बहस, सेना के रवैये पर उठ रहे सवाल -बिना लड़े कैसे अफगानिस्तान की फौज ने कर दिया आत्मसर्म्पण, एक महीने में तालिबान ने किया अफगानिस्तान पर कब्जा -राजनीतिक दूरदर्शिता की कमी व सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार भी है बड़ी वजह

नजफगढ़ मैट्रो न्यूज/द्वारका/नई दिल्ली/शिव कुमार यादव/- इतने सहजभाव में अफगानिस्तान की सत्ता का हस्तांतरण हो जाना पूरे विश्व में किसी को भी हजम नही हो रहा। अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्ज्ति अफगान सेना बिना लड़े ही 80 हजार तालिबानी लड़ाकों के सामने नतमस्तक हो गई और पूरा विश्व इस मंजर को देखकर सन्न रह गया। अब बात यह उठ रही है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि अफगान सेना ने तालिबान के सामने जरा सा भी प्रतिकार नही किय। इसपर रणनीतिक विश्लेषक अब तरह-तरह के कयास लगा रहे है। कुछ का मानना है कि सेना में भ्रष्टाचार के चलते आत्म विश्वास की कमी थी तो कुछ का मानना है कि अफगान सेना में भर्ती हुए सैनिक तालिबाने लड़ाके ही थे जो तालिबान से लडने की बजाये उसकी राह आसान कर रहे थे। इसकी पूर्ण जानकारी अमेरिका को भी थी और लड़ाई के दौरान हटाये गये अफगानी सेना के जनरल की बात भी इस बात की पुष्टि की देती है कि कुछ तो गड़बड़ थी जिसके चलते तालिबान इतनी आसानी से अफगानिस्तान पर काबिज हो गया। यह बात अमेरिका व अफगान राजनेता बखूबी जानते हैं। हालांकि पूर्व पश्चिमी सैनिक अफसरों और स्वतंत्र टीकाकारों की राय है कि अफगान बलों की करारी हार का कारण अब देश छोड़ कर जा चुके राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के प्रति लोगों में मौजूद विरोध भाव है। व्यापक भ्रष्टाचार और बदइंतजामी के कारण नाराज लोगों ने सेना का साथ नहीं दिया। जिसकारण अफगानिस्तान को हार का मुंह देखना पड़ा।.
                         विश्लेषकों का कहना है कि जब ये बात साफ हो गई कि अमेरिकी सैनिकों से अब कोई सहायता नहीं मिलेगी, तो अफगान फौजी या तो भाग खड़े हुए या फिर उन्होंने तालिबान के आगे समर्पण कर दिया। लेकिन एक बात और भी जो कोई कहना नही चाह रहा, वह है अमेरिका में भी अफगान को लेकर दूरदर्शिता की काफी कमी थी। अमेरिका को ये आभास ही नही था कि जिन अफगान सैनिकों को वह प्रशिक्षण व ट्रेनिंग तथा आधुनिक हथियारों से सुसज्जित कर रहा है वास्तव में वो तालिबानी लड़ाके ही है। अब अमेरिका अपनी नाकामी छिपाने के लिए इस बात को दबा रहा है। हालांकि अमेरिका ने अफगानिस्तान को खाली करने का निर्णय इसी बात को लेकर किया था। क्यांकि उसे यह सहज अंदाजा हो गया था कि जिस सेना व देश के लिए वह इतनी बड़ी रकम खर्च कर रहे है वह देश उसके साथ ही धोखा कर रहा है। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ किया।
                      यह सही है कि चीन व पाकिस्तान को अफगानिस्तान में अमेरिका व भारत की उपस्थिति काफी खल रही थी। जिसे देखते हुए दोनो देश मिलकर तालिबान की मदद कर रहे है। चीन को डर था कि अगर अफगानिस्तान में अमेरिका जम गया तो वह वहां की जमीन का उसके खिलाफ  इस्तेमाल करेगा और उस पर हमेशा खतरा मंडराता रहेगा। कमोबेश यही हाल पाकिस्तान का था उसे डर था कि भारत के साथ लड़ाई में भारत अफगान सीमा से भी उसके खिलाफ मोर्चा खोल सकता है। हालांकि रूस इस लड़ाई में सिर्फ अपने अहम के चलते ही शामिल है। वह बैठकर सिर्फ तराजू को देख रहा है कि वह किस ओर झुकेगी तभी वह अपने पत्ते खोलेगा। हालांकि भारत के अमेरिकी खेमे में जाने से रूस भी काफी आहत है और वह भी अब राजनीतिक खेल खेल रहा है। अफगानी बच्चों, महिलाओं व बुजुर्गों की किसी को कोई परवाह नही है। जो लोग विश्व में मानवाधिकार का राग अलापते है वह भी आज मौन धारण किये हुए है। विश्व का इस्लामिक संसार मूक बन कर सब देख रहा है और अफगान में तालिबान के शासन को मौन सहमति दे रहा है।
                      अफगानिस्तान की सेना अपने गिरे मनोबल और जन समर्थन की कमी के कारण तालिबान का मुकाबला नहीं कर पाई। यहां के ज्यादातर रणनीतिक विश्लेषकों की यही राय है। अभी कुछ दिन पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भरोसा जताया था कि अफगानिस्तान के तीन लाख सुरक्षा बल तालिबान का मुकाबला करने में सक्षम साबित होंगे। उन्होंने कहा था कि इन बलों को अमेरिका ने ट्रेनिंग दी है और उन्हें आधुनिक हथियार भी दिए गए हैं। पिछले महीने बाइडन ने कहा था- ‘ये संभावना बेहद कम है कि तालिबान सब कुछ को कुचलते हुए पूरे देश पर कब्जा जमा लेगा।’
                       विश्लेषकों का कहना है कि अफगान सैनिकों के पास तालिबान की तुलना में बेहतर हथियार थे। उनकी ट्रेनिंग भी उच्च दर्जे की थी। लेकिन जब बीते हफ्ते तालिबान लड़ाकों ने हमलों की शुरुआत की, तो वे बिजली चमकने जैसी तेजी के साथ आगे बढ़ते चले गए। रविवार को उन्होंने राजधानी काबुल पर भी कब्जा जमा लिया। इस अभियान के दौरान उन्हें शायद ही कहीं मजबूत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कई जगहों पर तो हाथों में क्लाश्निकोव राइफलें लहराते हुए मोटर साइकिलों से चलने वाले तालिबान लड़ाकों ने अब आधुनिक हथियारों को अपने कब्जे में ले लिया है।
                         पूर्व पश्चिमी सैनिक अफसरों और स्वतंत्र टीकाकारों की राय है कि अफगान बलों की करारी हार का कारण अब देश छोड़ कर जा चुके राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार के प्रति लोगों में मौजूद विरोध भाव है। व्यापक भ्रष्टाचार और बदइंतजामी के कारण नाराज लोगों ने सेना का साथ नहीं दिया। लोगों में ये भरोसा ही नहीं था कि भ्रष्टाचार से ग्रस्त अफगान सेना तालिबान का मुकाबला कर पाएगी। अफगानिस्तान के युद्ध पर किताब लिख चुके पूर्व ब्रिटिश सैनिक अधिकारी माइक मार्टिन ने ब्रिटिश अखबार द फाइनेंशियल टाइम्स से कहा- ‘अफगान सेना के साथ समस्या हथियारों या ट्रेनिंग की कमी की नहीं थी। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू होता है युद्ध की राजनीति। उसका सरकारी पक्ष के पास अभाव था।’
                        विश्लेषकों के मुताबिक ज्यादातर अफगान जनता जातीय, कबिलाई और पारिवारिक संबंधों के बीच रहती है। इसलिए जब अमेरिका ने अपने सैनिक वापस बुलाने की घोषणा की, तो नई बनी अफगान सेना के एक हिस्से ने तालिबान के साथ बातचीत शुरू कर दी। इस वजह से बड़ी संख्या में सैनिकों ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। मार्टिन ने कहा- ‘तालिबान अफगान सरकार की परतें उघाड़ने में सफल रहा, क्योंकि सरकार का कबीलों, पारंपरिक खानदानों और जातीयता के साथ पर्याप्त जुड़ाव नहीं था। यह मूलभूत मुद्दा है। तालिबान से क्षमादान मांग कर सैनिक कमांडरों ने समर्पण कर दिया। तालिबान ने उन्हें क्षमा करते हुए घर जाने की इजाजत दे दी।’
                       जर्मन थिंक टैंक अफगानिस्तान एनालिस्ट्स नेटवर्क के अफगानिस्तान स्थित कंट्री डायरेक्टर अली यावर आदिली ने द फाइनेंशियल टाइम्स से कहा कि अमेरिका ने अचानक जिस तेजी से अपने फौजी लौटाए, उससे अफगान बल सकते में रह गए। राष्ट्रपति गनी सहित बहुत से अफगानियों को ये अंदाजा नहीं था कि अमेरिका ऐसा करेगा। उन्होंने कहा- ‘अफगान सैनिक अमेरिकी वायु सेना के समर्थन पर काफी निर्भर थे। अमेरिकी ठेकेदार उन्हें साजो-सामान की सहायता देते थे। उस पर भी उनकी निर्भरता थी। अब ये सहारा उनके साथ नहीं रह गया था।’
                        फिलहाल अफगानिस्तान में अब हालात बदल चुके है। वहां तालिबानी राज फिर से स्थापित हो गया है। अब देखना यह है कि ये तालिबानी सिर्फ राज करेंगे या फिर 2011 की घटना को दोहरायेंगे। तालिबान का समर्थन करने वाले अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों को अब सोचना होगा कि तालिबान का उदय जिस मकसद के लिए हुआ है उसका अगला निशाना कौन होगा चीन या पाकिस्तान ? वैसे तालिबान के विस्तारवाद का निशाना सबसे पहले कमजोर पाकिस्तान ही हो सकता है। वहीं सोवियत संघ से अलग हुए छोटे देश भी तालिबान का निशाना बन सकते है। हालांकि चीन तालिबान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है लेकिन एक दिन यही चीन तालिबान के खिलाफ जंग लड़ता दिखाई देगा। वहीं चीन की विस्तारवादी नीति भी पाकिस्तान की तरह अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने की है ताकि वह उस सिल्क रूट तक पंहुच सके जो उसके लिए यूरोप व रूस से अलग हुए छोटे देशों तक उसकी पंहुच बना सके। पाकिस्तान से चीन को वह हासिल नही हो रहा जो वह चाहता है। जिसके लिए अब उसकी निगाहे अफगानिस्तान पर टिकी हैं। आने वाले समय में जिन देशों ने अफगानिस्तान को ढ़हते देखा है वही इस समस्या से जूझते दिखाई देंगे। इस्लाम का सबसे आसान व बड़ा निशान अब बाल्टिक सागर के छोटे देश हैं। रूस में चेचेन्या गिरोह आतंक का पर्याय बना हुआ है और अब अफगानिस्तान तालिबान व चेचेन आतंकियों की पनाहगाह बन जायेगा। हालांकि अमेरिका से पहले भी रूस अफगानिस्तान पर इस समस्या के चलते हमला कर चुका है अब वही हालात रूस के सामने फिर से आ सकते है। 

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